आनंद रूप द्विवेदी | Editorial Desk
मध्यप्रदेश का रीवा शहर, जहाँ जूदेव राजवंश के किला प्रांगण में स्थित है, भगवान शिव का महामृत्युंजय मंदिर । इस मंदिर में लगभग हजार छिद्रों वाला अद्भुत शिवलिंग स्थित है जो अन्य कहीं देखने को नहीं मिलता । यह शिवलिंग सफ़ेद रंग का है जिसपर किसी भी मौसम का कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।
ऐसा माना जाता है कि इस शिवलिंग का अभिषेक करने से अकाल मृत्यु का संकट भी टल जाता है । साथ ही मंदिर में यदि महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया जाये तो हर बाधा से मुक्ति स्वयं भगवान महामृत्युंजय की कृपा से मिल जाती है, साथ ही, इस शक्तिशाली मंत्र का जप करने से घायल व्यक्ति या बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति के प्राणों की रक्षा भी हो जाती है ।
क्या है महामृत्युंजय मन्त्र का इतिहास ?
वैदिक मान्यताओं के अनुसार मरकंड ऋषि निःसंतान थे। सन्तान प्राप्ति हेतु भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए ऋषि मरकंड ने तपस्या शुरू कर दी । पहले तो भगवान शिव प्रकट नहीं हुए लेकिन बहुत प्रयासों के बाद उन्होंने प्रकट होकर ऋषि को संतान प्राप्ति का वरदान दिया, साथ ही शिव जी ने कहा कि उनका पुत्र अल्पायु होगा जिसकी बारह वर्ष की आयु में मृत्यु निश्चित है ।
एक ओर जहाँ पुत्र प्राप्ति की प्रसन्नता थी वहीँ उसकी अल्पायु का ज्ञान माता पिता को कष्ट पहुंचा रहा था । उन्होंने अपने पुत्र का नाम मार्कन्डेय रखा । माता पिता ने पुत्र मार्कन्डेय को उसकी अल्पायु होने की बात बता दी । तभी बालक मार्कन्डेय ने यह निश्चय कर लिया कि वो उन्हीं महादेव से अपने प्राणों की रक्षा का वरदान प्राप्त करेगा जिन्होंने उसे जीवन दिया है ।
“बालक मार्कन्डेय को पिता ने बचपन से ही शिव मन्त्र का जाप करना सिखा दिया । छोटी सी आयु में ही मार्कन्डेय ने महामृत्युंजय मन्त्र की रचना कर दी । बारह वर्षों की आयु पूर्ण होने पर बालक मार्कन्डेय शिव मंदिर में बैठकर इसी मन्त्र का जाप कर रहे थे कि तभी कुछ यमदूत उनके प्राण लेने आ गये, लेकिन वो बालक के निकट जाने की हिम्मत न जुटा सके और हार मानकर वापस यमराज के पास चले गये । यमराज उन यमदूतों पर बहुत नाराज़ हुए और मार्कन्डेय के प्राण लेने स्वयं चले गये ।”
बालक मार्कन्डेय ने यमराज को देखा तो शिवलिंग से लिपट गये और जोर-जोर से मंत्रोच्चार करने लगे । यमराज ने बलपूर्वक बालक को शिवलिंग से हटाते हुए ले जाने की चेष्टा की तो जोरदार गर्जन के साथ मंदिर हिल उठा । एक तेज़ प्रकाश से यमराज की आँखें व्याकुल हो गईं । भगवान् शिव स्वयं उस शिवलिंग से प्रकट हुए और यमराज को त्रिशूल से सावधान करते हुए बोले, ‘तुमने मेरे भक्त को उसकी साधना से खींचने का साहस कैसे किया?’
यमराज भयभीत हो गये और महादेव से क्षमा याचना करते हुए कहा, भगवन आपने ही जीवों से प्राण हरने का यह निष्ठुर कार्य मुझे सौंपा है । मैं तो बस विधि पूर्वक अपना कार्य कर रहा हूँ । इसपर महादेव शांत हुए और बोले, ‘अब तुम इसके प्राण नहीं ले सकते क्योंकि मैं अपने भक्त की साधना से प्रसन्न होते हुए इसे दीर्घायु होने का वरदान देता हूँ ।’ तब यमराज ने यह घोषणा की कि आज के बाद मैं किसी भी महादेव भक्त को, जो मार्कन्डेय रचित महामृत्युंजय मन्त्र का जाप करेगा, त्रास नहीं दूंगा । वैदिक मान्यताओं के अनुसार महामृत्युंजय मन्त्र, काल को भी परास्त कर देता है ।
क्या है रीवा के महामृत्युंजय मंदिर का इतिहास?
ऐसा माना जाता है कि, एक बार बघेलखंड के जूदेव राजवंश के इक्कीसवें राजा विक्रमादित्यदेव ने शिकार के दौरान एक बाघ को चीतल का पीछा करते हुए देखा । एक निश्चित स्थान पर आकर वह बाघ रुक गया और बिना चीतल का शिकार किये ही लौट गया ।
राजा यह देख आश्चर्य में पड़ गये । राजा ने उस स्थान की खुदाई करवाने का निश्चय किया जिसके बाद वहाँ से एक सफ़ेद रंग का अद्भुत शिवलिंग प्राप्त हुआ । शिवमहापुराण में ऐसे ही सफ़ेद शिवलिंग का उल्लेख किया गया है । राजा ने उस स्थान पर शिवलिंग की स्थापना करवा दी । इस स्थान पर पूजा अर्चना की जाने लगी जिसके बाद आगे चलकर राजा भाव सिंह ने यहाँ भव्य मंदिर का निर्माण करवा दिया। मंदिर के समीप ही शेरशाह सूरी के पुत्र सलीम शाह के समकालीन एक जर्जर किला भी था जिसे राजा विक्रमादित्य द्वारा पुनर्निर्मित करवाते हुए नया किला बनवाकर रीवा को विन्ध्य क्षेत्र की राजधानी के रूप में स्थापित कर दिया गया ।
सावन के प्रत्येक सोमवार यहाँ श्रद्धालुओं की अपार भीड़ लगती है । लोग महामृत्युंजय का अभिषेक कर अपने जीवन रक्षा के लिए अर्चना करते हैं । मध्यप्रदेश समेत सुदूर राज्यों से लोग यहाँ दर्शन व अनुष्ठान के लिए आते रहते हैं ।