आलोक शर्मा | Navpravah.com
दो-चार दिन में मेरे सामने दो-तीन आलेख आए, जो भगत सिंह की वैचारिक स्थिति को लेकर ग़ज़ब की अवधारणा पेश कर रहे थे। हालांकि यह मसला नया नहीं है, लेकिन मेरे सामने पहली बार आया, तो मैंने इस पर सजगता से और सहानुभूतिपूर्वक विचार किया।
पहला आलेख एक दक्षिणपंथी घोषित पत्रिका में छपा था और दूसरा भगत सिंह के एक ग्रन्थ लायक लेखन को विभिन्न क़िताबों की शक्ल देकर धन कूटने वाले एक लेखक की कलम का कमाल था। पहला घोषित कर रहा था कि भगत सिंह ख़ानदानी आर्यसमाजी थे और क्षणिक रूप से भटक गए थे। इसके उलट दूसरा उन्हें ‘पक्का मार्क्सवादी’ घोषित कर रहा था। दूसरे की आड़ यह थी – ‘कुछ रुको, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मुलाक़ात कर रहा है।’ साथ ही, भगत सिंह का ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ आलेख तो बहुत बड़ा प्रमाण है ही।
वे चुनौती दे रहे थे – भगत सिंह ने घोषित किया था – ‘मैं नास्तिक हूं’, तुम भी करो, तो मैं मान लूं कि तुम सही हो।
दक्षिणपंथी असल में तर्कहीन प्रजाति है। मैं होता, तो कहता – भारत में सबसे पहले महर्षि चार्वाक ने घोषित किया था कि वे नास्तिक हैं और उनका सिद्धांत था – ‘ऋणं कृत्वा घृतम पिवेत’। तुम आज तक इसी पर चल रहे हो। अगर तुम्हारे तर्क का मूल आधार यही है, तो स्वीकार करो कि मार्क्सवाद असल में सनातन की देन है और उसके आदिगुरु आचार्य चार्वाक थे।
मैंने भगत सिंह का प्रसिद्ध आलेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ अनेकानेक बार पढ़ा है। कई बार जिज्ञासावश और कई दफा नुक्ताचीनी करने के उद्देश्य से, लेकिन हर बार मुझे उनके प्रश्नों की कोई काट नहीं सूझी।
कल मैं उसे एक बार फिर पढ़ रहा था, तो मुख्य प्रश्न सदा की तरह एक बार फिर मेरे सामने मुंह बाए थे –
भगत सिंह ने इसमें एक जगह कहा है कि उन्होंने कार्ल मार्क्स को ‘कुछ ही’ पढ़ा है। वे क्रांतिकारियों के कारनामे पढ़ने के शौकीन थे। फ्रांस की क्रान्ति उन्हें लुभाती थी। वे बाकुनिन, त्रात्स्की, लेनिन आदि उन लोगों को पढ़ते थे, जो क्रांतिकारी विचार को धरातल पर उतार सके थे।
उन्हीं के शब्दों में पढ़ें – “…. ‘अध्ययन’ की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंज रही थी – विरोधियों द्वारा रखे गये तर्कों का सामना करने योग्य बनने के लिए अध्ययन करो। अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिए सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाए थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे सोहम स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।”
इस तहरीर में आप देख सकते हैं कि वे कह रहे हैं कि उन्होंने मार्क्स को ‘कुछ ही’ पढ़ा। सोचें, क्या अर्थ है इसका?
संभवतः आपको पता होगा कि पेरिस से शुरू हुआ यह विद्रोह देखने-सुनने के बाद मार्क्स ने अपनी अवधारणाओं में व्यापक बदलाव किया था। यह विशुद्ध रूप से उन श्रमिकों की क्रान्ति थी, जिनमें से कोई कम्युनिस्ट नहीं था, लेकिन कम्युनिस्टों ने इसे ‘पेरिस कम्यून’ नाम देकर हथिया लिया।
भगत सिंह आयरिश क्रांतिकारियों के दीवाने थे। उन्होंने आयरलैण्ड के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी डॉन ब्रीन की आत्मकथा ‘माई फ़ाइट फ़ॉर आयरिश फ्रीडम’ का हिन्दी में अनुवाद किया था। अर्थात भगत सिंह न राष्ट्रवादी थे, न आर्यसमाजी थे, न मार्क्सवादी थे। वे सिम्पली ‘क्रांतिकारी’ थे। उन्हें क्रान्ति से प्यार था।
दरअसल उन्हें हाईजैक कर लिया गया। ठीक वैसे, जैसे अम्बेडकर, स्वामी विवेकानंद, कबीर, राम मनोहर लोहिया, दिनकर, निराला और प्रेमचंद आदि को किया गया। पढ़ते रहिए।
(वरिष्ठ पत्रकार आलोक शर्मा जी की फेसबुक वॉल से साभार उद्धृत)