Gendalal Dixit : एक बार क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने किसी संगठन की तारीफ करते हुए कहा था कि “संयुक्त प्रांत का संगठन भारत के सब प्रांतों से उत्तम, सुसंगठित तथा सुव्यवस्थित था
क्रांति के लिए जितने अच्छे रुप में इस प्रांत ने तैयारी कर ली थी उतनी किसी अन्य प्रांत ने नहीं की थी” यहां रास बिहारी जी जिस संगठन का जिक्र कर रहे हैं उस क्रांतिकारी दल का नाम था “मातृवेदी” जिसके संस्थापक थे रामप्रसाद बिस्मिल जी लेकिन आज हम जिनकी गाथा आपको सुनाने जा रहें वह रामप्रसाद बिस्मिल जी नहीं हैं यह गाथा है “मातृवेदी” दल के कमांडर-इन-चीफ एवं उत्तर भारतीय क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य मानें जाने वाले “पंडित गेंदालाल दीक्षित जी” की एक ऐसा क्रांतिवीर जिसने शिक्षण क्षेत्र की कुशल जिंदगी छोङ क्रांति कें शोर को सुना और अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े.. अपने साहसिक कारनामों से इस युवा क्रांतिकारी ने तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था मगर अफसोस की जिस युगांतर ने इस देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उसके अपने ही उसकी स्मृति नहीं सहेज सकें..चूक तंत्र की हों या फिर तंत्रीय भावनाओं से लबरेज इतिहासकारों की मगर एक जाबांज योद्धा का बलिदान इतिहास के पन्नों में सही स्थान नहीं प्राप्त कर पाया..
पंडित गेंदालाल दीक्षित जी का जन्म चंबल घाटी के भदावर राज्य आगरा अंतर्गत बटेश्वर के पास एक छोटे से गाँव मई में 30 नवम्बर,1890 को हुआ था
अल्पायु में मातृत्व वात्सल्य से मरहूम होने वाले इस योद्धा की जिंदगी कष्टकारी जरुर बनी पर इस मरहूमयत को उन्होंने अपनी कमज़ोरी नहीं बल्कि ताकत बनाया वो मानसिक एवं शारीरिक दोनों स्वरूपों में मजबूत बन कर उभरे..
घर की आर्थिक स्थिति ठीक ना हों पाने के कारण इन्होंने अपनी हाईस्कूल तक की शिक्षा पूरी कर औरैया के डीएवी स्कूल में शिक्षक की नौकरी कर ली।1905 में हुए बंग-भंग के बाद चले स्वदेशी आन्दोलन का उन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था। अंग्रेजी सेना का अत्याचार देख वे नौकरी छोड़ क्रांतिकारी बन गए। उस वक्त डकैतों का मजबूत प्रभाव था लोग उनसे खौफ खाते थे अपनी निजी स्वार्थ के लिए वों लोगों को लुटने का काम करते थे हालांकि वे लोग बहादुर तो थें ही..यह सब देख पंडित जी को एक उपाय सूझा उन्होंने सोचा कि क्यों का इनके नकारात्मक कार्य को सकारात्मक रुप से स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उपयोग किया जाए उन्होंने गुप्त रूप से डकैतों को एकत्रित कर एक संगठन बनाया जिसका नाम था “शिवाजी समिति” शिवाजी की तरह ही छिप कर यह उत्तर प्रदेश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ अपने अभियान को सक्रिय रूप से करने लगे धीरे धीरे यह बात बाकी क्रांति दलों तक पहुंची एवं पंडित जी की शौर्य गाथा मशहूर होने लगी.
जब इनकी वीरता के किस्से महान क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल जी तक पहुंची तों उन्होंने पंडित जी से अपने अभियान के लिए मदद मांगी पंडित जी ने सहर्ष इस प्रस्ताव को स्वीकार किया एवं जल्द ही बिस्मिल जी ने शिवाजी समिति के संग मिलकर साल 1916 में “मातृवेदी” की स्थापना की इसका मुख्य केन्द्र “मैनपुरी” हीं थी..शायद यह पंडित जी की कल्पनाशील नेतृत्व और अद्भुत सांगठनिक क्षमता का ही परिणाम था कि एक समय “मातृवेदी” दल में दो हज़ार पैदल सैनिक के अलावा पाँच सौ घुड़सवार थे। इसके अलावा संयुक्त प्रांत के 40 ज़िलों में 4 हज़ार से ज़्यादा हथियारबंद नौजवानों की टोली थी। दल के खजाने में आठ लाख रुपए थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि “मातृवेदी” दल की केन्द्रीय समिति में चंबल के 30 बाग़ी सरदारों को भी जगह मिली हुई थी।
देखें वीडियो और जानें शहीद गेंदालाल जी के बारे में वो अनकही बातें जिन्हें इतिहासकारों ने अनदेखा कर दिया:
आख़िरकार क्रांति की एक तारीख़ 21 फ़रवरी, 1915 मुकर्रर हुईं इस दिन बङी संख्या में सैनिक इस दल में शामिल होने वाले थे लेकिन कहते हैं ना कि घर के भेदी लंका डाहे ऐसा ही कुछ इनके साथ भी हुआ इनके संगठन का एक सदस्य दलपत सिंह अंग्रेजों का मुखबिर बन गया और उस विश्वासघाती ने अंग्रेजों को उनके अड्डे का पता बता दिया अंग्रेजी अधिकारी ने वहां छापामारी कर गेंदालाल दीक्षित सहित उनके कई साथियों को गिरफ्तार कर लिया था अंग्रेजी अधिकारियों ने उनसे उनके बाकी साथियों का पता लगाने का हरसंभव प्रयास किया पर उनके इरादों को तोङना अंग्रेजी अधिकारियों के बस में कहा था..
गिरफ्तारी के बाद पंडित जी को बाकी युवा क्रांतिकारियों से अलग बैरक में रखा गया उन सभी से गहन पूछताछ की गई प्रताङित किया गया ताकि बाकी लोगों का पता वो बता सकें जब उन्हें एहसास हुआ कि उनके दोस्त अंग्रेजों की प्रताङना बर्दाश्त नहीं कर पायेंगे और बाकियों का पता बता देंगे इस पर पंडित जी एक कुशल संगठनकर्ता का परिचय देते हुए उस सिपाही को कहा कि ” उन बच्चों से क्या पूछते हों मुझसे पूछों मैं जानता हूं षड्यंत्र के बारे में मैं बताऊंगा पूरी कहानी लेकिन मेरी एक शर्त है मुझे भी उन सबके साथ रहने दों” अंग्रेजी अधिकारी उनके झांसे में आ गये एवं उन्हें भी उनके बाकी साथियों के साथ एक ही बैरक में रख दिया गया अब जेल में पंडित जी का अगला लक्ष्य था सरकारी गवाह को मजिस्ट्रेट के समक्ष गवाही देने से रोकने का उन्होंने ने फिर अपनी बुद्धि लगाईं एवं अधिकारी से कहा कि सरकारी गवाह अभी तुम्हें जों जानकारी दें रहा है वह अधुरी है मगर वो मेरा मित्र हैं अगर मैं बात करूं तो तुम्हें सही जानकारी देगा इसके लिए मुझे उससे बात करनी होगी जेलर ने उन्हें उसकी बैरक में डाल दिया
मुकदमा दर्ज हों चुका था चार्जशीट दाखिल की गई उसमें पंडित जी पर नवयुवकों को अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध भङकाने का आरोपी बनाया था लेकिन
जेल की सलाखें ज्यादा दिनों तक उन्हें कैद नहीं कर सकी अपनी सूझबूझ एवं बौद्धिक कुशलता से वह जेल से सरकारी गवाह सहित फरार हो गए अंग्रेजी हुकूमत ने बहुत कोशिशें की ताकि उन्हें पकङा जायें लेकिन निराशा से ज्यादा उनके हाथ कुछ नहीं आया यह कांड स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में “मैनपुरी षड्यंत्र” के नाम से जाना गया
इस अभियान में पकड़े गए कयी क्रांतिवीरों को फांसी की सजा हुई..इस नाकाम क्रांति कें बाद भी पंडित जी ने हार नहीं मानी वह सिंगापुर, बर्मा और संघाई जाकर वहाँ काम कर रहे क्रांतिकारी संगठनों से देश की आज़ादी के लिए समर्थन माँगा। “मातृवेदी” को नये सिरे से खड़ा करने के लिए काफ़ी जद्दोजहद की, लेकिन कामयाब नहीं हुए।
महज तीस साल की छोटी सी उम्र में 21 दिसम्बर, 1920 को गेंदालाल दीक्षित की शहादत क्षय रोग से हुई। उनकी शहादत के कई साल बाद तक अंग्रेज़ हुकूमत उनके कारनामों से खौफजदा रही। सरकार को यक़ीन ही नहीं था कि गेंदालाल दीक्षित अब इस दुनिया में नहीं हैं।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे कितने ही सेनानी हैं जिनकी शौर्य गाथा हमारे इतिहासकार हम तक नहीं पहुंचा पाए.. आजादी के सालों बाद ही सही जरुरत हैं उनके योगदान को याद करने की जिनके वजह से आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं…इस स्वतंत्रता दिवस नमन ऐसे शूरवीरों की जिसने हमारी पीढ़ी को स्वतंत्रता बिना किसी देय के दे दी।
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