पीयूष चिलवाल | Navpravah.com
वहां दूसरी बार जा रहा था पिछली बार तब गया था जब वहां मेला लगा हुआ था और तब लिखने, सोचने और पढ़ने की ज्यादा लालसा भी नहीं थी मुझमें। तब घूमने का मतलब सिर्फ घूमना होता था लेकिन इस बार जब जाने का फैसला किया तो यह सोच कर किया की उस जगह को करीब से जानना है। क्यूं जानना है इस बारे में कभी सोचा नहीं, बस जानना था ठीक वैसे ही जैसे हम उन सारी चीजों के बारे में जानना चाहते हैं जिनसे हमारा ज्यादा लेना-देना नहीं होता।
जब रामनगर (जहां आजकल अपना घर है) से निकले तो मां से पहले ही कह चुका था कि मां मुझे इस बार वहां जाना है। पहले तो मां मना करती रही लेकिन बार-बार ज़िद के कारण मां मान गयी और मेरा वहां जाने का आदेश जारी कर दिया। मां के मना करने का कारण सिर्फ उस जगह की ऊंचाई थी और मां का मानना था कि मैं इतना पैदल नहीं चल सकता। लेकिन कहते हैं ना जब कुछ ठान लिया हो तो मुसीबतों को भी आपके सामने सज़दा करके जाना पड़ता है। रामनगर से तकरीबन 120 किलोमीटर की दूरी पर, चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरा हुआ मेरे घर या यूं कह दिया जाए मेरा जन्मघर, चिललगांव के सबसे ऊंचे टीले पर जहां से रात को बांई तरफ देखने पर जगमगाता हुआ रानीखेत नज़र आता है और दांई ओर देखने पर मल्लीमिरेई के रोशनमय मकान; पहुंचने पर अंदाज़ा हो गया था कि सफर कुछ आंसां नहीं होने वाला है। दो दिन से लगातार बारिश हो रही थी, बिजली के पोल गिरने के कारण उसका कोई अता पता नहीं था कि कब आएगी; मेरा फोन एकदम डेड हो चुका था लेकिन डीएसएलआर में अभी दम बाक़ी था। गौरव से पहले पूछा तो उसने कहा था कि वो आएगा लेकिन बाद में पता चला की उसका इंजीनियरिंग का एक्ज़ाम है तो मैंने उसे आने के लिए खुद मना कर दिया।
अगले दिन सुबह से शुरू होने वाली इस यात्रा में मेरा साथी था मेरी मौसी का छोटा बेटा पंकज जो बेहद शैतन है और ड्रामेबाज भी। मालूम तो उसे भी था कि मैं उसे सिर्फ इसलिए ले जा रहा हूं ताकि वो मेरी तस्वीरें खींच सके। समुद्र तल से 3500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पांडव खोली जो ऐतिहासिक धरोहर के साथ-साथ हिंदू धर्म की श्रद्धा से भी जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि पांडव अपने अज्ञात वास के दौरान यहां रूके थे। घर से द्वाराहाट जाने के लिए गाड़ी कफड़ा से ली और फिर द्वाराहाट से कुकुछीना तक के लिए दूसरी गाड़ी, पहले तो ड्राइवर हमें दुनागिरी से आगे छोड़ने को राजी नहीं था लेकिन नोट सारे काम करवा ही देते हैं।
कुकुछीना से हमारा असली सफर शुरू हुआ था। लगभग तीन से चार किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई अपने इन्हीं पैरों से चढ़नी थी जिन पर मां को कतई विश्वास नहीं था। जिसमें लगभग डेढ़ घंटे का वक्त लगना तय था चूंकि मौसम आज भी खराब था तो हमें बारिश शुरू होने से पहले मंदिर पहुंचना था इसलिए मैंने पंकज से तेज चलने के लिए कहा और हम लगभग पचास मिनट में पाण्डव खोली पहुंच गए। कुकुछीना से पाण्डव खोली तक जाने के लिए काफी पापड़ बेलने पडे़ थे, एक तो भूख से बुरा हाल, और साथ में पंकज के ड्रामे झेलना बहुत मुश्किल था।
असल में कुकुछीना नाम के पीछे भी एक कहानी है जो मेरे मित्र गौरव ने मुझे बताई थी। क्यूंकि गौरव पहले ही इस जगह को काफी अच्छे से पढ़ चुके हैं तो उनका दिया हुआ ज्ञान इस यात्रा में काफी मददगार रहा। मान्यता है कि जब अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां पहुंच थे तो कौरव भी उन्हें ढूंढ़ते हुए यहां तक पहुंच गए थे। कौरव उन्हें क्षति पहुंचाना चाहते थे और इस बात की भनक उस क्षेत्र के राजा चित्रकूट कोे लग गई, राजा बेहद मायावी होने के साथ-साथ शक्तिशाली थे उन्होंने कौरव सेना को हराकर दुर्योधन को बंदी बनाकर एक पेड से बांध दिया इसलिए जगह का नाम कौरवछीना रख दिया गया जो बाद में कुकुछीना हो गया। हालांकि बाद में पांडवों के अनुरोध पर दुर्योधन को छोड़ दिया गया था।
मंदिर की देख रेख का कार्य रानीखेत की पथभ्रमण संस्था करती है। पाण्डव खोली को स्वर्गपुरी के नाम से भी जाना जाता है। पाण्डव खोली की नींव रखने का श्रेय ब्रह्मलीन बलवंत गिरी महाराज को जाता है जिनकी पुण्यतिथि पर हर साल दिसम्बर माह में भंडारा कराया जाता है जिसमें दूर-दूर से हजारों श्रद्धालु आते हैं। घंटा भर मंदिर में घूमने के बाद कुछ देर ध्यान किया और फिर आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों से निर्मित चाय पीने के उपरांत मन को मारते हुए लौट कर आना पड़ा। लौटते वक्त दुनागिरी मंदिर भी गए, क्यूंकि भूख काफी तेज लगी थी तो मंदिर के भण्डारे में आलू चने की सब्जी, पूड़ी और खीर खाकर अपने उदर को शांत किया जो बहुत देर से चूहों के ज़ोर-ज़ोर से कूदने के कारण बेहद अशांत स्थिति में पहुंच चुका था।
अगले दिन रामनगर को वापस लौटना था और मन अनुमती नहीं दे रहा था, मां से विनती कर जैसे तैसे दो दिन और रूके। उस पत्थर की 22 इंच की मजबूत दीवार वाले मकान से निकलते ही मेरे मन की मजबूती टूट जाती है और आंखों से बहता नीर रोकने की पूरी जद्दोजहद में लग जाता है। जन्मभूमि होने के कारण इस भूमि से बेहद लगाव है और इसे छोड़ कर जाने का मन नहीं करता लेकिन मजबूरन कर्मभूमि की ओर लौटना ही पड़ता है। इस लेख को यहीं छोड़ने के लिए चार पंक्तियों का प्रयोग कर रहा हूं-
छोड़ कर जाने को दिल नहीं करता
सोचे बिन तुझे दिन पूरा नहीं कटता
तिल-तिल तरसा हूं तुझसे मिलने को
मेरे गांव तू मुझसे कभी रूठा नहीं करता
(लेखक पीयूष चिलवाल, उत्तराखंड के बेहद संज़ीदा युवा साहित्यकार हैं, जिनकी फेसबुक पोस्ट से यह वृत्तान्त साभार उद्धृत है।)