डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय,
किसी भी राष्ट्र की दिशा और दशा वहां की शिक्षा व्यवस्था तय करती है। जब शिक्षा के केंद्र में भौतिक विकास को रखा जाता है तो नैतिक मूल्य हाशिए पर चले जाते हैं। ऐसी स्थिति में सामाजिक समरसता खतरे में पड़ जाती है। भ्रष्टाचार चरम पर होता है, युवा आतंक का रास्ता चुनने लगते हैं, वृद्धाश्रमों की बाढ़ आ जाती है। आत्महत्याओं का आंकड़ा आसमान छूने लगता है, सबके मंगल की कामना पूज्य ग्रन्थों में सिमट कर रह जाती है। कट्टरपंथी शक्तियां धर्म को हथियार बनाकर समाज को लहूलुहान करने लगती हैं।
वर्तमान में शिक्षा अपने स्वरूप को खो चुकी है। बिहार बोर्ड में घटित एक टॉपर की घटना से पूरा देश सन्न रह गया। कमोबेश, यही हाल पूरे राष्ट्र की शिक्षा व्यवस्था का है। शिक्षा माफिया चारों ओर सक्रिय हैं। परीक्षा केंद्र धन उगाही के केंद्र बनते जा रहे हैं। शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला देना मोटी कमाई का जरिया बन चुका है। इस संदर्भ में बॉम्बे उच्च न्यायालय की टिप्पणी सटीक बन पड़ी है, “इन दिनों स्कूल कानून को अपने हाथों में ले रहे हैं और वे ‘पैसा कमाने का धंधा’ बन चुके हैं।” शिक्षा जगत के लिए इससे शर्मनाक बात कुछ नहीं हो सकती। कोचिंग सेंटर इतने सबल और प्रभावशाली हैं कि राज्य सरकारें उन पर कार्यवाही से डरती हैं।
आरक्षण की आग में झुलस रही प्रतिभाएं-
आरक्षण की आग में झुलसती प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं। उपेक्षित युवाओं के कदम विनाश की तरफ बढ़ने लगे हैं, जबकि देश में पिछड़ेपन का तमगा पाने के लिए होड़ मची है। यहां तक कि हिंसा और लूटपाट से भी गुरेज़ नहीं किया जा रहा है।राजनीति लाचार और नपुंसक बन चुकी है। यह सिद्ध हो रहा है, “यह देवकन्या नहीं बल्कि विषकन्या की आत्मजा है।”
यदि इन समस्याओं की सूक्ष्म पड़ताल की जाय तो हमारी शिक्षा व्यवस्था कटघरे में खड़ी होती है। हमने कैरियर को संवारने के लिए अंकों को इतना महत्त्व दे दिया कि चरित्र पीछे छूट गया। परिणामस्वरूप इसका खामियाजा पूरा समाज भुगत रहा है। विवेक कुंद हो गया है, कोई भी सिरफिरा धर्म की आड़ में यहां के युवाओं को बन्दूक थमा सकता है। कोई भी पथभ्रष्ट और चरित्रहीन खलनायक आज की पीढ़ी का आदर्श बन सकता है। आखिर, कौन सी ऐसी स्थितियां हैं, जो छात्रों को उनकी संस्कृति और विरासत से दूर कर रही हैं ? राम-कृष्ण, गौतम-महावीर, सुभाष-भगत जैसे महापुरुष दूर की कौड़ी प्रतीत होने लगते हैं। वर्तमानजीवी पीढ़ी के साथ क्या सब कुछ सामान्य है या कुछ अधूरा-सा, खोया-खोया ? जो भी हो, कहीं न कहीं एक असंतोष, उदासी और भटकाव की स्थिति अवश्य है।
निराशा और कुंठा में डूबे युवाओं की पीड़ा की जिम्मेदारी कौन लेगा? कहां से उनमें आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति जागेगी ? इसके लिए हमारे नौनिहालों को संजीवनी की ज़रूरत है। यह संजीवनी भारत की शिक्षा व्यवस्था ही दे सकती है। यह तभी संभव होगा, जब हमारी शिक्षा में नैतिक मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा। शैक्षणिक संस्थान व्यावसायिक हब बनने से बचेंगे। इस क्षेत्र में पूंजीनिवेश का मुख्य उद्देश्य चरित्र-निर्माण के साथ-साथ राष्ट्र-निर्माण होगा। उन सभी तत्वों को ढूंढ़कर शिक्षा का अंग बनाना होगा, जो भारत को पुनः विश्वगुरु का दर्ज़ा दिला सकते हैं। हमें दुनिया के साथ कदम-ताल ही नहीं बल्कि उनका नेतृत्व भी करना है।