डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय | Navpravah.com
“साँझ के हाथों मे सूरज दे गया है प्रेम-पाती,
जा रहा हूँ दूर तुमसे तुम जलाना दीप-बाती।”
अक्षर कभी क्षरित नहीं होते । ये उसे भी अमर करते हैं जो इन्हें साधता है । इस नश्वर दुनिया में काल के साथ वही लंबी यात्रा कर पाते हैं जो शब्द-साधक होने के साथ-साथ शब्दजीवी भी होते हैं । जिनके कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होता । एक ऐसे ही विराट व्यक्तित्त्व के धनी थे कवि रंगनाथ चौबे ‘रंग’ । विद्यापति की परंपरा के इस कवि से जो भी मिला, उनका हो गया । मेरी भी मुलाक़ात कुछ ऐसी ही थी ।
गर्मी की छुट्टियों में मैं जब भी जाता, उनसे मिले बिना नहीं लौटता । गज़ब का आकर्षण तो उनके जादुई व्यक्तित्त्व में । चाय-पानी के बाद काव्य-पाठ का पिटारा खोल देते । शब्द-शब्द मधुरता की चाशनी में पगे रहते । जी करता था, बस सुनते रहें । सचमुच, कविता का मधुमय आभास यहीं होता था । काव्यशास्त्रों में साहित्य के लिए ‘ब्रह्मानंद सहोदर’ की बात की गई है । इसका अनुभव तो यहीं हुआ ।सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में उन्हीं को पद-प्रतिष्ठा मिल पाती है जो जोड़-तोड़ की राजनीति में माहिर होते हैं । सरस्वती का यह वरदपुत्र इस प्रकार के गठजोड़ में फिसड्डी साबित हुआ ।
एक मुलाक़ात में रंगनाथ चौबे जी ने बताया था कि देवरिया (बिहार) के एक कवि सम्मेलन में किस तरह वहाँ का जनमानस उनकी कविता-पाठ का दीवाना बन गया । इस अवसर पर ख्यातिलब्ध कवि स्व. चंद्रशेखर मिश्र स्वयं उनके मुरीद हुए थे और रचनात्मकता के कुछ गुर भी पूछे । यह भोजपुरी साहित्य का दुर्भाग्य है कि डॉ. रंगनाथ चौबे ‘रंग’ का खण्डकाव्य ‘सैरंध्री’ अभी तक अप्रकाशित है । खण्डकाव्य की उत्कृष्टता का आभास निम्न पंक्तियों से स्वयमेव हो जाता है –
“एक चक्र चलै न रुकै छन एक
धुरी मधुसूदन की अंगुरी
उही चक्र प जीव चराचर के संग
काल चलै कगरी कगरी
लोक चलै परलोक चलै, कुलि
लोक चलै संघरी संघरी
उही चक्र के जोरे अजोरे चलै
विधना रचिके रचना सगरी”
डॉ. रंगनाथ का भोजपुरी काव्य नंदनवन है । इसमें प्रवेश करने वालों का तन, मन और आत्मा मह-मह करने लगती है । यहीं पर बिंबित होती है वीनस-डी-मिलो की अर्धनग्न मूर्ति और लियोनार्दो द विंची की अबूझ पहेली-‘मोनालिसा’ । कतिपय भोजपुरी की रचनाएँ प्रासंगिक हैं –
“जब चातक पीर अधीर लगै,
नहिं दृष्टि टरै बदरा परसे
मनभावन सावन की डगरी,
कगरी कगरी कजरा तरसे
तब गजगामिनि कामिनि सी,
निकसै कविता बनिता घरसे
भव भाव विभाव से भावित हो,
रस- बिन्दु झरै अधराधर से ।”
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“अग्नि परीक्षा की ज्वाल कराल में
वेदवती सिय रूप समाला
जहवाँ तपि के निकसैं मतवा
लिहले हथवाँ जय जीव की माला
शिव धाम से शम्भु निहारि रहे
आसन छोड़ि बाघाम्बर वाला
कमला कमलापति शेष जहाँ
अवशेष जहाँ पय सिंधु बुझाला ।”
कवि रंग की हिंदी कविता भोजपुरी के समानांतर चलती है । यहाँ भी शब्द-माधुर्य, शब्द-चयन और बिंबों की खूबसूरत श्रृंखला बरकरार है । पीड़ा, करुणा, उदारता, प्रेम और मैत्री कवि की थाती है । पीड़ा को सँजो कर रखने वाले इस कवि की इस रचना की अंतर्व्यथा को समझें –
“छलक न जाये बन कर आंसू
छलकी तो नादानी होगी
यह पीड़ा ही सम्बल होगी जब
कुछ और सयानी होगी
आँखों में जब रात कटेगी
पीड़ा मन से बात करेगी
ढाढ़स देगी, समझाएगी.
कलकी भोर सुहानी होगी
छलकी तो नादानी होगी ।”
एक रचनाकार अपने समय से विलग नहीं हो सकता । वह भी राग-द्वेष, घात-प्रतिघात, सम्मान-अपमान को देखता, समझता और सहता है । इसलिए उसकी कलम वर्तमान विसंगतियों को उघाड़ कर समाज के सामने रखती है, युवाओं को संघर्ष के लिए तैयार करती है और साथ ही भविष्य में बदलाव का संकेत भी देती है । वर्तमान समसामयिक विसंगतियों पर
डॉ. रंगनाथ चौबे का आक्रोश इस गीत में कुछ इस प्रकार फूटा है –
“शब्द दूषित गगन में सघन हो गये,
बन के बादल किसी दिन बरस जायेंगे ।
हो न जाये हलाहल धरा का सलिल,
लोग दो बूँद को भी तरस जायेंगे ।।”
डॉ. चौबे अपने हिस्से की जिम्मेदारी उसी तरह निभाते हैं जैसे चिलचिलाती धूप में खड़ा कोई हरा-भरा पेड़ । चुपचाप, बिना ढोल पीटे । अपने एक गीत में वे लिखते हैं – “मैं समन्वय के पटल पर / शक्ति के संकल्प लिखकर / इस तिमिर में, एक तुलसी फिर बुलाना चाहता हूँ / मुखपुत्र ईश्वर का बने जो / राह करुणा की चुने जो / प्राण में रस-गंध घोले / ज्योति के जो द्वार खोले / मैं मलय की गंध में डूबे हुए / हर छंद की सौगंध लेकर / हर अधर पर एक भाषा फिर उगाना चाहता हूँ ।”
गीतकार रंगनाथ जी कल की खुशहाली के लिए वर्तमान को संघर्षों से भर देना चाहते हैं । इसके लिए वे हर काले गोरखधंधों पर जमकर वार करने को तैयार हैं । समझौता उनके स्वभाव में नहीं है । एक उद्बोधन में डॉ. चौबे लिखते हैं –
“शह छोड़ अब मात करें हम
आओ कल की बात करें हम
आँखों वाले उन अंधों की
काले सब गोरखधंधों की
घातों पर प्रतिघात करें हम
आओ कल की बात करें हम ।”
डॉ. रंगनाथ चौबे ‘रंग’ मात्र गीतों में ही नहीं बल्कि जीवन में भी फक्कड़ थे । वही, कबीर वाली फक्कड़ता । मज़ाल क्या कि उनके चेहरे पर किसी ने शिकन भी देखी हो । सबके लिए उनके दिल से सद्भावना की नदियाँ फूटती थीं । मिलने वाले को यही लगता था कि डॉक्टर साहब सबसे ज्यादा उसी की परवाह करते हैं ।
उनके निधन से आहत डॉ. लक्ष्मण दूबे बताते हैं, “अभी दस दिन पहले रंग जी ने मुझे वीडियो कॉल किया था । कह रहे थे अब मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ । पिछली बार कम समय देने के कारण वे नाराज थे । बच्चों जैसी अधीरता दिखाते हुए उन्होंने कहा था कि लक्ष्मण जी जल्दी गाँव आ जाओ । लिट्टी-चोखा साथ में खाएँगे । मैं बनवाऊँगा । मेरे घर आना, नहीं तो मैं ही आपके यहाँ चला आऊँगा ।” चौबे जी अपनी बीमारी को लेकर कभी उदास नहीं हुए । “हम क्यों घबरायें” शीर्षक गीत में लिखते हैं –
“जब अनंत से घिरी हुई हैं, पृथ्वी की सीमायें –
हम क्यों घबरायें ?
जैसी गंध मिली धरती को, वैसे सुमन खिले ।
उतना ही गतिमान जगत है, जितनी छुवन मिले ।
अक्षरहीन अँधेरों से ही, निकली सभी ऋचायें –
हम क्यों घबरायें ?
जितनी पीता रहता सूरज, अपकर्षों की हाला ।
उत्कर्षों के लिए चाँद ने, उतना अमृत दे डाला ।
रंग सभी की आँखों में, इंद्रधनुष भर जायें –
हम क्यों घबरायें ?”
डॉ. रंगनाथ का साहित्य वैविध्यता पूर्ण है । यहाँ सबके मन की बात मिलेगी । सौंदर्य और दर्शन साथ-साथ चलते हैं । ज्ञान की गगरी प्रेम के विशाल समुद्र में बदलती जाती है । शब्द-संधान के अचूक निशानेबाज हैं रंगनाथ जी । हवाओं का रुख पहचानने में निष्णात । तभी तो लिखते हैं –
“जाने या अनजाने में ही,
उलझन को सुलझाने में ही,
हमसे कोई भूल हुई है,
तभी हवा प्रतिकूल हुई है ।”
इनकी रचनाओं को पढ़ते हुए कभी जयदेव का साहित्य सामने आता है तो कभी विद्यापति की पदावली झंकृत होने लगती है ।कहीं कवि बिहारी का सौंदर्य ध्वनित होता है तो कहीं पर धूमिल का आक्रोश । ग़ज़लों में तो दुष्यंत कुमार की परंपरा के वाहक-से प्रतीत होते हैं ।
गीत, कविता एवं ग़ज़ल के कई संग्रह डॉ. रंगनाथ जी ने लिखा है । गोपालगंज बाजार के उनके साहित्यिक शिष्य श्री लालबहादुर चौरसिया बताते हैं , ‘चुटकी भर सिंदूर’, ‘हमसे कोई भूल हुई है’, ‘मेमने के होठ पर लहू’, ‘बदनाम चमन हो जाएगा’ और ‘दर्द के गीत’ उनके प्रमुख संग्रह हैं ।” डॉ. रंगनाथ चौबे के देहावसान से व्यथित वे अपनी बात बढ़ाते हुए कहते हैं, “मैंने अपना एक अभिभावक खो दिया ।
डॉ. साहब मुझसे इतना अंतरंग थे कि प्रतिदिन मेरी दुकान पर आते और अपनी कोई न कोई रचना सुनाकर जाते । मैंने कभी उन्हें मायूस नहीं देखा । हम सबकी प्रेरणा थे वे । मुझे ऐसा लगता है कि आज़मगढ़ जनपद ने एक साहित्यिक विभूति खो दिया ।” डॉ. रंगनाथ चौबे ‘रंग’ एक ऐसे कोहिनूर थे जिनकी चमक पर सदैव आवरण पड़ा रहा । मुझे विश्वास है कि महाप्राण निराला की तरह उन्हें भी कोई राम विलास शर्मा मिलेगा ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह कोई अन्वेषी उनकी पांडुलिपियों को प्रकाश में लाएगा । यकीन है कि साहित्य के मंदिर में इस महाकवि की शाश्वत प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी । पीर का यह गायक अपनी फेसबुक वाल पर 2 सितंबर, 2018 की सायं साढ़े आठ बजे अपने स्वस्थ होने का वादा करके 5 दिसंबर, 2018 की शाम को लखनऊ की पीजीआई में अपने वादे से मुकर जाता है । चल पड़ता है अपनी अनंत यात्रा पर । साहित्य जगत में एक सूनापन…खाली-खाली ।
न तो कोई चर्चा, न ही शोक सभा । बस, एक अवसाद- रिक्तता –
“पीर छलक कर इन .नयनों से,
धड़कन का संवाद लिखेगी ।
आत्म कथा आहों की लिखकर ,
आँसू का अनुवाद लिखेगी ।”
वास्तव में आदरणीय रंग साहब एक अद्भुत प्रतिभा और व्यक्तित्व के शिरोमणि थे मेरी साहित्य को लेकर एक मुलाकात आदरणीय से हुई थी जो अत्यंत सराहनीय रही और सर ने कहा की मिलते रहना पर मेरा दुर्भाग्य था कि उस मुलाकात के बाद विधि ने कोई इतर मुलाकात निश्चित नहीं की । हमारी मुलाकात में आदरणीय लाल बहादुर चौरसिया लाल जी का अहम योगदान था ।
हम आपको उचित स्थान दिलाने के लिए प्रयत्नशील रहेंगें ।।