अमित द्विवेदी | Editorial Desk
प्राचीन भारत में नालंदा विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा का एक ऐसा केंद्र था जहाँ विश्व के तमाम देशों के विद्यार्थी ज्ञानार्जन करने आते थे। दुनिया के सबसे प्राचीन विश्वविद्यालयों में से एक नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5वीं शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी। इस विश्वविद्यालय में दूर देशों जैसे कोरिया, जापान, तिब्बत, चीन, ग्रीस और पर्शिया तक के विद्यार्थी अध्ययन के लिए आया करते थे।
महायान बौध धर्म के इस विश्वविद्यालय में हीनयान बौद्ध धर्म के साथ अन्य धर्मों की शिक्षा दी जाती थी। अनेक पुराभिलेखों और सातवीं सदी में भारत भ्रमण के लिए आये चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग के यात्रा विवरणों से इस विश्वविद्यालय के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। ख़ुद चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी यहां लगभग साल भर शिक्षा ली थी।
प्राचीन काल में भी इस विश्वविद्यालय में जो सुविधाएँ प्रदान की जाती थीं, वह अकल्पनीय हैं। यह पहला ऐसा विश्वविद्यालय था जो पूरी तरह से आवासीय था और कोई शुल्क नहीं लिया जाता था। छात्रों और शिक्षकों के लिए विश्वविद्यालय परिसर में ही आवास का पूरा इंतज़ाम था। विश्वविद्यालय में सभी संकायों को मिलाकर लगभग दो हज़ार शिक्षक थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि शिक्षा का अलख जगाने वाले ऐसे विश्वविद्यालय को नष्ट क्यों कर दिया गया? एक ऐसा विश्वविद्यालय जो विश्व के तमाम देशों के विद्यार्थियों को बिना किसी भेदभाव के शिक्षित करता था, उसे नष्ट क्यों कर दिया गया? आइये जानते हैं नालंदा विश्वविद्यालय को कितनी बार नष्ट किया गया और कौन सा ऐसा विनाशकारी हमला था जिसने शिक्षा के इस महामंदिर को हमेशा के लिए खण्डहर में तब्दील कर दिया।
जब स्कंदगुप्त यहाँ का शासक हुआ करता था, उस समय ह्यून के कारण पहला विनाशकारी हमला हुआ था। इस हमले में विश्वविद्यालय को काफी क्षति पहुंची थी लेकिन स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारियों ने इसकी मरम्मत करवाई और कुछ समय के बाद विश्वविद्यालय पूर्ववत संचालित होने लगा।
विश्वविद्यालय को नष्ट का सिलसिला यहीं नहीं थमा, नालंदा विश्वविद्यालय पर दूसरा विनाशकारी हमला किया गौदास ने। इस बार, बौद्ध राजा हर्षवर्धन (606-648 ईस्वी) ने विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी।
इस के बाद साल 1193 में तुर्की आक्रमणकारियों ने नालंदा को लूटा और विश्वविद्यालय को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने बिहार में भीषण तबाही मचाई और खूब धन लूटा। उसने धन संपत्ति के साथ भारत वर्ष की संस्कृति को भी काफी क्षति पहुंचाई।
“इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी इस बात से परेशान था कि बौद्ध धर्म एक बड़े धर्म के रूप में कैसे उभर रहा है जबकि वह इस्लाम का पताका लहराने के लिए कुछ भी करने को तैयार था, किसी भी स्तर तक गिर जाने में संकोच नहीं करता था। इस्लाम का ध्वज फहराने के लिए उसने सबसे सशक्त शिक्षा के केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय को चुना। उसने यह तय किया कि इस विश्वविद्यालय का समूल विनाश करने के बाद बौद्ध धर्म के अस्तित्व को वह समाप्त कर देगा। खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को भी पूरी तरह से नष्ट कर दिया। उसने लगभग 90 लाख किताबों को ख़ाक कर दिया। जानकारों के मुताबिक़ खिलजी ने जब पुस्तकालय को आग के हवाले किया, तो तीन महीने तक वह आग बुझी ही नहीं। लगातार तीन महीने तक किताबें जलती ही रहीं। “
नालंदा विश्वविद्यालय के क्षतिग्रस्त होने की वजह से प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक विचारों की अपूरणीय क्षति हुई।
तबाकत-ए-नासिरी के आधार पर नालंदा विश्वविद्यालय का विनाश कैसे हुआ था, आइये जानते हैं-
तबाकत-ए-नासिरी, फारसी इतिहासकार ‘मिनहाजुद्दीन सिराज’ द्वारा रचित पुस्तक है। इसमें मुहम्मद ग़ोरी की भारत विजय तथा तुर्की सल्तनत के आरम्भिक इतिहास की लगभग 1260 ई तक की जानकारी मिलती है। बता दें कि उस समय मिनहाज दिल्ली का मुख्य क़ाज़ी था। इस पुस्तक में ‘मिनहाजुद्दीन सिराज’ ने नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में भी ज़िक्र किया है कि खिलजी और तुर्की सेना नें हजारों भिक्षुओं और विद्वानों को जला कर मार दिया, क्योंकि वह नहीं चाहता था कि बौद्ध धर्म का विस्तार हो। वह इस्लाम धर्म का प्रचार-प्रसार करना चाहता था। इसलिए उसने नालंदा की लाइब्रेरी में उसने आग लगवा दी और सारी पांडुलिपियों को जला दिया।
ऐसा माना जाता है कि धार्मिक ग्रंथों के जलने के कारण भारत में एक बड़े धर्म के रूप में उभरते हुए बौद्ध धर्म को सैकड़ों वर्षों तक का झटका लगा था और तब से लेकर अब तक यह पूर्ण रूप से इन घटनाओं से नहीं उभर सका है।