डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
कुछ क़िस्से बड़े दिलचस्प होते हैं, उनमे से कोई एक किरदार, लड़ता है, गिरता है, उठता है और फिर जीतता है| उस किरदार को जीतता हुआ देखना, बड़ा सुकून भरा होता है, लेकिन क़िस्सागो कितना भी बढ़िया क्यों न हो, उस किरदार के मन के अंदर के डर, अफ़सोस और जद्दोजहद को एकदम वैसे ही बयां नहीं कर सकता, जैसा उस किरदार ने महसूस किया होता है| संगीतकार जयदेव की कहानी भी कुछ ऐसी ही है, जिसमें शोहरत है, अर्श है, महफिलें हैं एक तरफ़, तो दूसरी ओर गुमनामी है, ज़मीन की भीड़ है और तन्हाई है|
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जयदेव, 1918 में, नैरोबी, केन्या में पैदा हुए और कुछ ही दिनों बाद, उनका परिवार, लुधियाना, पंजाब आ गया| एक बार जयदेव ने कहीं, फ़िल्म, “अलीबाबा और चालीस चोर” देखी और उनके ऊपर जुनून सवार हो गया, फ़िल्मों में काम करने का|नतीजा ये हुआ कि महज़ 15 साल के कमउम्र जयदेव, बंबई (अब मुंबई) भाग गए| वहां से इन्हें पकड़ कर वापस लाया गया, लेकिन वापस आने के पहले, जयदेव 8 फ़िल्मों में, बहैसियत चाइल्ड आर्टिस्ट काम कर चुके थे|
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वापस लुधियाना आ कर उन्होंने पाया कि उनकी दिलचस्पी मौसिक़ी में भी है| उन्हें रेडियो में गाने का मौक़ा भी मिला, लेकिन जल्दी ही, सांस फूलने की बीमारी ने ये तय कर दिया कि बतौर गायक, वे ज़्यादा कामयाब न हो सकेंगे| उन्होंने हार नहीं मानी और उस्ताद हरबल्लभ मेला से शुरूआती तालीम ली|
” इसके बाद ये फिर मुंबई जा पहुंचे और 1934 में आई फ़िल्म, “वामन अवतार” में, नारद का किरदार निभाया. इस दौरान वे जावकर बंधुओं से संगीत भी सीखते रहे. अब सब संभल ही रहा था कि अचानक इन्हें फिर वापस लुधियाना आना पड़ा, क्योंकि इनके पिता, अंधे हो चले थे. “
1943 में, इनके पिता गुज़र गए और सभी ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग होकर, उसी साल ये लखनऊ पहुंच गए और मशहूर अली अकबर ख़ान से सीखना शुरू किया| जब 1951 में, अली अकबर, नवकेतन फ़िल्म्स के बहुत बार बुलाने पर, उनकी फ़िल्म, “आंधियां” और “हमसफ़र” में म्यूज़िक देने गए, तो जयदेव भी बतौर असिस्टेंट उनके साथ गए| यहीं, जयदेव, महान म्यूज़िक डायरेक्टर सचिन देव बर्मन से मिले और उनके असिस्टेंट के तौर पर भी काम करने लगे|
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वक़्त ने करवट लिया और 1961 में आई फ़िल्म, “हम दोनों”, जो कि नवकेतन बैनर की आख़िरी B&W फ़िल्म थी| इस फ़िल्म का संगीत देने का भार जयदेव. को दिया गया| वैसे तो सभी गाने बेहतरीन बने, लेकिन 3 गाने इतिहास बने| वे तीन गाने थे:
“अभी ना जाओ छोड़कर”
“मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया”
“कभी ख़ुद पे, कभी हालात पे रोना आया”
आज भी ये तीनों गाने मिसाल हैं पुरकशिश नग़्मों के| इसके बाद जयदेव रुके नहीं| इन्होंने लगभग चालीस फ़िल्मों में संगीत दिया और ज़्यादातर को, इनके संगीत के लिए ही जाना जाता है| इन्हें 3 राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले, 1972 में “रेशमा और शेरा” के लिए, 1979 में “गमन” के लिए और 1985 में “अनकही” के लिए| मशहूर गायक हरिहरन को पहली बार “गमन” में, जयदेव ने ही काम दिया था| “तू चंदा, मैं चांदनी”, “सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है”, ये गीत आज भी अपनी कशिश से किसी को भी रोक लेते हैं| जयदेव में शास्त्रीय संगीत और लोक संगीत का मिश्रण करने की अद्भुत क्षमता थी| जयदेव मौलिक काम करना चाहते थे, आपने गुरु सचिन देव की तरह लेकिन ज़माना राहुल देव बर्मन का था, जो शानदार तो थे, लेकिन बहुत मौलिक नहीं|
जयदेव ने कम ही फ़िल्मों में संगीत दे पाए, लेकिन उनका असर हमेशा ज़िंदा रहेगा| 1987 में जयदेव गुज़र गए, लेकिन जाने के पहले, रामानंद सागर के धारावाहिक “रामायण” में अपना संगीत दिया|
जयदेव को उनके शानदार संगीत के लिए हमेशा याद किया जाएगा|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)