अनुज हनुमत,
इलाहाबाद। केंद्र सरकार के नोटबन्दी के फैसले को एक महीने का समय पूरा हो गया। फैसले के विरोध में जहाँ एक ओर दिल्ली में विपक्ष ने काला दिवस मनाया, वहीं दूसरी ओर संगम नगरी इलाहाबाद स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय में ‘छात्र अदालत’ का आयोजन किया गया। इसका आयोजन आल इंडिया डीएसओ ने किया, लेकिन कैम्पस में तमाम आयोजनों की तरह ये कार्यक्रम भी विरोध की राजनीति की भेंट चढ़ गया ।
आपको बता दें कि कार्यक्रम अपने पूर्वनियोजित समय से ही शुरू हुआ और तीन जजों की संयुक्त खंडपीठ के समक्ष नोटबन्दी के फैसले के विपक्ष में जिरह कर रहे वकील द्वारा आरोप पत्र दाखिल करने के साथ अदालत की कार्यवाही शुरू हुई। नोटबन्दी के फैसले पर दोनों वकीलों ने अपनी अपनी दलीलें पेश की और सबूत के तौर पर दर्जनों छात्रों ने पक्ष और विपक्ष में अपनी अपनी राय रखीं। अदालत की कार्यवाही ठीक ठाक चल ही रही थी कि कुछ छात्रों ने यह आरोप लगाते हुए भारत माता के नारे लगाने शुरू कर दिए कि हमें अपना पक्ष रखने से क्यों रोका जा रहा है। इसी बीच दोनों गुटों के समर्थक आपस में भिड़ते नजर आये लेकिन बीच-बचाव के बाद स्थिति सामान्य हुई लेकिन छात्र अदालत की कार्यवाही फिर नहीं शुरू हो पाई।
तीन सदस्यीय जजों की खंडपीठ का निर्णय छात्रों के बीच नहीं आ पाया। अचानक हुए इस विरोध के बीच छात्र इन्तजार करते रहे कि शायद छात्र अदालत शायद पुनः शुरू हो लेकिन ऐसा नही हुआ । छात्र नेता और आल इंडिया डीएसओ के जिला पदाधिकारी भीमसिंह चंदेल ने नवप्रवाह.कॉम से बात करते हुए कहा कि ‘नोटबन्दी के फैसले पर छात्रों की राय जानने के उद्देश्य से हमने छात्र अदालत कार्यक्रम का आयोजन किया था और कार्यक्रम ठीक चल रहा था लेकिन बीच में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कुछ छात्र कार्यकर्तायों ने भारत माता के नारों के साथ उपद्रव करना शुरू कर दिया, जिस कारण कार्यक्रम बन्द करना पड़ा। उन्होंने कहा कि छात्रों ने जिस प्रकार से पूरे कार्यक्रम में बढ़ चढ़कर भाग लिया वो भी काबिलेतारीफ है।
बहरहाल, इलाहाबाद विश्वविद्यालय कैम्पस में होने वाले किसी भी कार्यक्रम में दो गुटों में आपसी विरोध होना आम बात हो गई है, लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न ये है कि क्या कैम्पस यूँ ही तमाम छात्र संगठनों के आपसी नूरा कुश्ती का अखाड़ा बना रहेगा? या सभी आपसी विवाद छोड़कर छात्र हितों को प्राथमिकता देना शुरू करेंगे!