जो बोलेगा मारा जाएगा: निशाने पर आरटीआई कार्यकर्ता और समाजसेवी

अनिल गलगली,

महाराष्ट्र की प्रगतिशील राज्य की छवि को बार-बार कुचलने की कोशिश जारी है। मुंबई के उम्र दराज आरटीआई कार्यकर्ता भूपेंद्र वीरा की दिनदहाड़े हत्या से फिर एक बार आरटीआई और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमलों का विषय गंभीर हुआ है। महाराष्ट्र को और कितनी मौत चाहिए, यह सवाल आम जनमानस से लेकर सोशल मीडिया तक में चर्चा का विषय बना हुआ है। ‘जो बोलेगा मारा जाएगा’,ऐसा ही कुछ महाराष्ट्र में हो रहा है, क्योंकि पूरे भारत में जितने भी आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले हुए और रास्ते से हटाया गया, उनमें महाराष्ट्र सबसे आगे है।

महाराष्ट्र में आरटीआई कानून लागू होने के बाद से ले कर आज तक कई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं। इनमें सामजिक कार्यकर्ता डा. नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पनसरे के नाम भी जुड़ गए हैं। भले ही ये दोनों किसी की सूचना नहीं इकट्ठी करते थे, लेकिन गलत कुरीतियों के खिलाफ जम कर अपनी बात रख कर उस के कार्यान्वयन से पीछे नहीं हटते थे।

दाभोलकर और पनसरे की हत्या से पहले पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या हुई थी। प्रसिद्ध समाजसेवी अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान से जुड़े सतीश ने वहां के जमीन घोटाले की जानकारी निकाली थी। मौर्निंग वाक के दौरान उनकी हत्या हुई, जिस का सुराग आज तक नहीं लग पाया है। सीबीआई ने अप्रैल 2014 में क्लोजर रिपोर्ट सौंप कर मामला बंद किया था, जबकि उनके हत्यारों तक सीबीआई पहुंची थी,पर राजनीतिक दबाव के कारण मामला आगे बढ़ नहीं पाया। इस हत्या को मुंबई हाईकोर्ट ने संज्ञान में लेकर उसे जनहित में परावर्तित किया। सीबीआई ने शेट्टी मामले में एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी की गिरफ्तारी हुई है, लेकिन जो इसके मास्टर माइंड थे उनके गिरेबान पर हाथ डालने की हिम्मत सीबीआई ने नहीं की है।

पिछले 12 सालों में कितने लोगों ने आरटीआई कानून का इस्तेमाल करने और सामाजिक मामलों को उठाने के कारण अपनी जान गंवाई और कितने लोगों पर जानलेवा हमले हुए, इस का जवाब न केंद्र के पास है, न राज्य सरकार के पास। महाराष्ट्र में सामाजिक आंदोलन की अगुआई करने वालों पर हमला होना नई बात नहीं है।

महाराष्ट्र हमेशा सामाजिक कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले की घटनाएं से चर्चा में रहा है। प्रसिद्ध अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता श्रीराम लागू पर वर्ष 1991 में सांगली में एक गुट ने लाठियां बरसाई थीं। उसी वर्ष डा. नरेंद्र दाभोलकर पर हथियारों से लैस एक गुट ने हमला किया था लेकिन दाभोलकर ने पुलिस में शिकायत करने से इनकार कर दिया था। 16 मार्च, 2010 को रेत माफिया ने सामाजिक कार्यकर्ता सुमेरिया अब्दुल अली, नसीर जलाल और एक पत्रकार पर महाड में जानलेवा हमला किया था। महाड पुलिस ने एक विधायक के पुत्र पर मामला भी दर्ज किया। चर्चगेट स्थित ओवल बिल्डिंग में नयना कथपलिया पर 8 जनवरी, 2010 को फायरिंग हुई थी। वे एसआरए योजना, हौकर्स और अतिक्रमित जमीन कब्जेदारों के खिलाफ आंदोलन करती थीं।

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13 जनवरी, 2010 को सतीश शेट्टी (38) की तलेगांव दाभाड़े में हत्या की गई। 20 अप्रैल, 2010 को विठ्ठल गीते की मौत हुई, उनपर बीड के वाघबेट गांव में जानलेवा हमला हुआ। उन्होंने साईनाथ विद्यालय में चल रही अनियमितता का भंडाफोड़ किया था। 22 दिसंबर, 2010 को ही कोल्हापुर में दत्तात्रय पाटील की हत्या हुई थी। पाटील ने नगरसेवकों की हौर्सट्रेडिंग बाबत जनहित याचिका दायर की थी तथा पावरलूम कारखानों की पोल खोली थी।कौमनवैल्थ ह्यूमन राइट्स इनीशिएटिव (सीएचआरआई) द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज के अनुसार, केंद्र सरकार के पास सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले की आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। कार्मिक, लोकशिकायत एवं पैंशन मंत्रालय ने हाल के वर्षों के मामलों से यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि केंद्र सरकार ऐसे मामलों के आंकड़े एकत्र नहीं करती। केंद्र का हमेशा तर्क होता है कि सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हुआ हमला कानूनव्यवस्था की बहाली का मामला है,जो उन राज्यों के अधीन है। हाल ही में केंद्रीय सूचना आयोग ने जारी किए रिपोर्ट में लिखा गया है कि सूचना का अधिकार कार्यान्वित होने से आज तक 1.75 करोड़ भारतीयों ने इसका इस्तेमाल किया है।

बीते 12 वर्षों के रुझान इस बात का संकेत करते हैं कि उपेक्षा, अन्याय और भ्रष्टाचार का शिकार हुआ तबका आरटीआई और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हिम्मत को पस्त करने के लिए उनके ऊपर बड़ी तादाद में हमले कर रहा है। मिसाल के लिए, बीते 12 वर्षों में महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर 57 बार हमले हुए हैं और इन में 12 मामलों में कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है। अगर सही बात कही जाए तो जल, जंगल और जमीन के अलावा सामाजिक कुरीतियों तथा भ्रष्टाचार को उजागर करने का मामला हो तो सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या या उन के उत्पीड़न की आशंका सबसे अधिक है।

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 महाराष्ट्र के हर एक आरटीआई कार्यकर्ता को पुलिस की सुरक्षा देना संभव नहीं है, लेकिन जो शिकायत करते हैं या जिन्हें धमकाया जाता हैं, उन्हें पुलिस की सुरक्षा देने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन ऐसे मामलो में स्थानीय पुलिस, राजनेता और अपराधियों की साठगांठ होने से इनकी शिकायतों को नजरअंदाज किया जाता है। कमसे कम पुलिस उपायुक्त या उसके स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों की निगरानी में ऐसी शिकायतों का निपटारा होना चाहिए।
महाराष्ट्र के हर एक आरटीआई कार्यकर्ता को पुलिस की सुरक्षा देना संभव नहीं है, लेकिन जो शिकायत करते हैं या जिन्हें धमकाया जाता हैं, उन्हें पुलिस की सुरक्षा देने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन ऐसे मामलो में स्थानीय पुलिस, राजनेता और अपराधियों की साठगांठ होने से इनकी शिकायतों को नजरअंदाज किया जाता है। कमसे कम पुलिस उपायुक्त या उसके स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों की निगरानी में ऐसी शिकायतों का निपटारा होना चाहिए।
महाराष्ट्र के हर एक आरटीआई कार्यकर्ता को पुलिस की सुरक्षा देना संभव नहीं है, लेकिन जो शिकायत करते हैं या जिन्हें धमकाया जाता हैं, उन्हें पुलिस की सुरक्षा देने में कोई हर्ज नहीं है। लेकिन ऐसे मामलो में स्थानीय पुलिस, राजनेता और अपराधियों की साठगांठ होने से इनकी शिकायतों को नजरअंदाज किया जाता है। कमसे कम पुलिस उपायुक्त या उसके स्तर के वरिष्ठ अधिकारियों की निगरानी में ऐसी शिकायतों का निपटारा होना चाहिए।
महाराष्ट्र में सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले होने की घटनाओं की बढ़ती तादाद के बावजूद राज्य सरकार की तरफ से कोई व्यवस्था नहीं की गई है कि कार्यकर्ता बेखौफ हो कर काम कर सकें। इनकी सुरक्षा को लेकर कानून को अंतिम मंजूरी नहीं मिल पा रही है, जो सबसे अधिक चिंता का विषय है। महाराष्ट्र सरकार के पास आरटीआई कार्यकर्ताओं पर होनेवाले हमले और उनकी हत्या के ठोस आकंड़े नहीं हैं , ना इसे रोकनेे का कोई प्लान नहीं है। जब तक प्रशासन आरटीआई कार्यकर्ताओं की सामाजिकता और संघर्ष को तवज्जो नहीं देता, तब तक ऐसे कितने ही शेट्टी, दाभोलकर, वीरा और पानसरे बेमौत मारे जाते रहेंगे।

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