डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय । Navpravah.com
बच्चों के दिलों में राज करने वाले भीमसैन खुराना अंतिम साँस तक अपने खोए बचपन को ढूँढ़ते रहे। बचपन की तलाश उन्होंने कहाँ-कहाँ न की ! बदलते मौसम का आना-जाना निहारते रहे । यौवन के गलियों की खाक छानी । बुझते चेहरों में भी निर्दोष बचपन को खोजा। ऐसा करते हुए उन्होंने ‘एक चिड़िया, अनेक चिड़ियाँ’ जैसी कई लोकप्रिय लघु फिल्मों के साथ-साथ एनिमेटेड फिल्मों की आधारशिला भी रखी। यही कारण है भीमसैन खुराना जी ‘भारतीय एनिमेशन के जनक’ के रूप में जाने जाते हैं। बच्चों की सहजता और सरलता उनके चेहरे से टपकती थी, ठीक वैसे ही जैसे भोर होते ही चुपचाप महुआ चुए । अपनापन ऐसा कि एक अपरिचित भी उन पर अपनी जान लुटा दे ।
संयोग की बात यह कि मेरी मुलाक़ात भी बच्चों के एक कार्यक्रम में हुई। ऐसा लगा जैसे सागर अपनी बेशकीमती मोतियों को सुंदर सीपियों में सलीके से सजा देना चाहता हो। अनुभव उछलती ऊर्जा को संयमित कर रहा था । हौले-हौले, बड़ी सावधानी से। भीमसैन जी के खिले और चमकते चेहरे को देखकर लग रहा था कि वे अपनी मंजिल का आनंद ले रहे हैं। महाकवि सूर का पद स्मरण हो आया –
‘मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै ।
जैसे उड़ि जहाज़ की पंछी, फिरि जहाज़ पै आवै॥
आखिर, दुनिया के समुद्र पर उड़ते हुए मन रूपी पंछी को इसी जहाज (बचपन) पर विश्राम मिलता है । यह अवस्था ईश्वर के अधिक करीब होती है।
भीमसैन जी का मिज़ाज़ सूफियाना था। प्रेम के दरिया को उन्होंने डूब कर पार किया था। ज़िद्दी गोताखोर और कुशल तैराक दोनों थे। रूहानी आशिकी थी उनकी। उन्होंने लिखा है :
“तेरी रूह से मिलने का मन है
तेरा चेहरा सामने आता है
सोचा तुम से कुछ बात करूं
तेरा ज़िस्म बीच में आता है”
विराट व्यक्तित्त्व के धनी इस कलाकार में आयामों की कड़ियाँ जुड़ती जाती हैं। मसलन शायर, कवि, गायक, एनिमेटर, चित्रकार, दिगदर्शक, सूफी इत्यादि किंतु इन सबके मूल में जो बसती है, वह है मानवीय संवेदना। सभी कलाओं में इसी की अभिव्यक्ति हुई है। ‘घरौंदा’ और ‘दूरियां’ जैसी फिल्में हमारी संवेदना पर जमी पपड़ी को कुरेदती हैं। ये अपने सामाजिक सरोकार में आज भी तरोताज़ा हैं। इनकी सौम्य किंतु निर्भीक छवि हर उस इंसान का प्रतिनिधित्त्व करती है जो भारतीय संस्कृति और उसकी विरासत को फलते-फूलते और फैलते देखना चाहता है। इंसान के परख की अद्भुत क्षमता थी इस कलाकार को, बिल्कुल ‘नीर-क्षीर-विवेक वाली। सात्विक एवं निर्छल लोगों के लिए तो वे यारों के भी यार थे किंतु कपटी और धूर्त लोगों को तुरंत पहचान लेते थे। ऐसे कालनेमियों के विषय में उन्होंने लिखा है :
“मिटाएंगे ये तेरी इज्ज़त को,
लूट भी लेंगे तेरी अस्मत को,
घर की तख्तियां बदल देंगे
कहीं होगा न निशां तेरा ।”
भीमसैन जी कर्मयोगी थे। अपनी कारयित्री प्रतिभा का लोहा इन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनवाया। 1936 में पाकिस्तान के मुल्तान में जन्में खुराना जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय से चित्रकला एवं संगीत की शिक्षा हासिल की थी। मुंबई को अपनी कर्मस्थली के रूप में चुना। 1971 में एनिमेटेड शॉर्ट फिल्म ‘द क्लाइंब’ को शिकागो में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में सिल्वर ह्यूजो अवार्ड दिया गया । 1978 के फ़िल्म फेयर अवार्ड में ‘घरौंदा’ फिल्म को दो कटेगरी में नॉमिनेट किया गया-बेस्ट फ़िल्म और बेस्ट फिल्म डायरेक्टर। अपने जीवनकाल में इन्हें कुल 16 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले। जनवरी 2018 में आयोजित मुंबई इंटरनेशनल फिल्म महोत्सव में आप को सम्मानित किया गया।
इन सबके बावजूद भीमसैन जी हमेशा बनावटी जीवन से दूर रहे। वे भी आम जन की तरह आशाओं-आकांक्षाओं, शोक-आनंद और संशय-आक्रोश में डूबते-उतराते रहे। उन्हें उन लोगों से विशेष चिढ़ थी जो दूसरों का हक खाते हैं। इस आक्रोश को उन्होंने कुछ यूँ बयां किया : ‘बाकी रख दो फिक्स डिपॉज़िट/जो भी मिलता भरते जाओ/मिल जुलकर खालो दुनिया को/जंगल खालो, सड़क भी खाओ/बिल्डिंग खाओ, पुल भी खाओ/अपनों का भी हिस्सा खाओ/अब भी पेट नहीं भरता तो/अपने प्यारे देश को खाओ।’ खूबसूरत दुनिया को जहन्नुम बना देने वाले ऐसे लोगों के प्रति वे आक्रामकता बरकरार रखते हैं। कड़ा तेवर अपनाते हुए लिखते हैं :
“यह शैतानों की बस्ती है
रोती ज्यादा कम हंसती है
जीवन से मौत यहां सस्ती है
सावन न बरसा कभी यहाँ
इस रेत में फूल खिला क्यों कर…
शांत जलाशय की तरह भीमसैन जी का मन स्थिर था, कोई भी अपना मुखड़ा देख ले। संकल्पों में वे पहाड़ थे जिनके पास अपने नसीब से भिड़ने का माद्दा था। वे मंजिल की खोज में न थे बल्कि मंजिलें उन्हें तलाशती थीं। इसी बात को आबिद सुरती ने लिखा है, “मैं कहूँगा – भीमसेन यानी वह इंसान ‘जिसकी तलाश में मंजिलें’ भटकती रहती हैं।”
मेरे विचार से भीमसैन के व्यक्तित्त्व में सूफियाना छाप तो है किंतु कहीं न कहीं यह कबीर की अक्खड़ता और फकीरी से भी मेल खाता है। इस संदर्भ में क्लाइंब मीडिया (इंडिया) प्रा. लि. द्वारा प्रकाशित उन्हीं की तीन पुस्तकों (‘मैं शायर तो नहीं’, ‘मैं शायर ही तो था’ और ‘लो, मैं शायर हो गया’) को देखा जा सकता है।
ये कृतियाँ उनके जीवन की सबसे प्रमाणिक दस्तावेज़ हैं। अंतर इतना कि कबीर ज्ञान की हाथी पर सवार थे जबकि भीमसैन जी कला के अश्व पर सरपट भागते रहे। हमेशा वल्गा को अपने हाथ में रखा। वह समय भी आया जब घुड़सवार शाश्वत तुरंग को छोड़ चिर विश्राम की तरफ बढ़ चला। कहीं कोई दाग नहीं, बिल्कुल बेदाग-‘जस की तस धर दीन्हीं चदरिया’। अस्तु।