माँ भारती के वीर सपूत ‘आज़ाद’ को नमन

By- Anuj Hanumat

जंग-ए-आज़ादी में कुछ लोग ऐसे थे, जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह न करते हुये हथियार को उठाया और सिर पर कफ़न बांधकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. इन्ही से एक थे चंद्रशेखर आजाद. 23 जुलाई 1906 को मप्र. के झाबुआ जिले के ग्राम भावरा में आजाद का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम पंडित सीताराम और माता का नाम जगरानी देवी था. आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भावरा गाँव में बीता. यहाँ उन्होंने धनुष बाण चलाने के साथ निशानेबाजी भी सीखी. आजाद ने देश को आजाद कराने के लिए अहिंसात्मक मार्ग के बजाए सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया.

17 वर्ष के चंद्रशेखर आज़ाद क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सम्मिलित हो गए. दल में उनका नाम ‘क्विक सिल्वर’ (पारा) तय पाया गया. पार्टी की ओर से धन एकत्र करने के लिए जितने भी कार्य हुए चंद्रशेखर उन सबमें आगे रहे. सांडर्स वध, सेण्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह द्वारा बम फेंकना, वाइसराय की ट्रेन बम से उड़ाने की चेष्टा, सबके नेता वही थे. इससे पूर्व उन्होंने प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ में सक्रिय भाग लिया और पुलिस की आंखों में धूल झोंककर फरार हो गए. एक बार दल के लिए धन प्राप्त करने के उद्देश्य से वे गाजीपुर के एक महंत के शिष्य भी बने. इरादा था कि महंत के मरने के बाद मरु की सारी संपत्ति दल को दे देंगे.

बचपन का दृढ़निश्चय-

एक आदिवासी ग्राम भावरा के अधनंगे आदिवासी बालक मिलकर दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे. किसी बालक के पास फुलझड़ियाँ थीं, किसी के पास पटाखे थे और किसी के पास मेहताब की माचिस. बालक चन्द्रशेखर के पास इनमें से कुछ भी नहीं था. वह खड़ा–खड़ा अपने साथियों को खुशियाँ मनाते हुए देख रहा था. जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, वह उसमें से एक तीली निकालता और उसके छोर को पकड़कर डरते–डरते उसे माचिस से रगड़ता और जब रंगीन रौशनी निकलती तो डरकर उस तीली को ज़मीन पर फेंक देता था।

बालक चन्द्रशेखर से यह देखा नहीं गया, वह बोला, “तुम डर के मारे एक तीली जलाकर भी अपने हाथ में पकड़े नहीं रह सकते. मैं सारी तीलियाँ एक साथ जलाकर उन्हें हाथ में पकड़े रह सकता हूँ.”
जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, उसने वह चन्द्रशेखर के हाथ में दे दी और कहा, “जो कुछ भी कहा है, वह करके दिखाओ तब जानूँ.” बालक चन्द्रशेखर ने माचिस की सारी तीलियाँ निकालकर अपने हाथ में ले लीं. वे तीलियाँ उल्टी–सीधी रखी हुई थीं, अर्थात कुछ तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की तरफ़ भी था. उसने तीलियों की गड्डी माचिस से रगड़ दी. भक्क करके सारी तीलियाँ जल उठीं. जिन तीलियों का रोगन चन्द्रशेखर की हथेली की ओर था, वे भी जलकर चन्द्रशेखर की हथेली को जलाने लगीं. असह्य जलन होने पर भी चन्द्रशेखर ने तीलियों को उस समय तक नहीं छोड़ा, जब तक की उनकी रंगीन रौशनी समाप्त नहीं हो गई. जब उसने तीलियाँ फेंक दीं तो साथियों से बोला, “देखो हथेली जल जाने पर भी मैंने तीलियाँ नहीं छोड़ीं.”

उसके साथियों ने देखा कि चन्द्रशेखर की हथेली काफ़ी जल गई थी और बड़े–बड़े फफोले उठ आए थे. कुछ लड़के दौड़ते हुए उसकी माँ के पास घटना की ख़बर देने के लिए जा पहुँचे. उसकी माँ घर के अन्दर कुछ काम कर रही थी. चन्द्रशेखर के पिता पंडित सीताराम तिवारी बाहर के कमरे में थे. उन्होंने बालकों से घटना का ब्योरा सुना और वे घटनास्थल की ओर लपके. बालक चन्द्रशेखर ने अपने पिताजी को आते हुए देखा तो वह जंगल की तरफ़ भाग गया. उसने सोचा कि पिताजी अब उसकी पिटाई करेंगे. तीन दिन तक वह जंगल में ही रहा. एक दिन खोजती हुई उसकी माँ उसे घर ले आई. उसने यह आश्वासन दिया था कि तेरे पिताजी तेरे से कुछ भी नहीं कहेंगे.

‘आज़ाद’

1921 में जब महात्‍मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होंने उसमे सक्रिय योगदान किया. चन्द्रशेखर भी एक दिन धरना देते हुए पकड़े गये. उन्हें पारसी मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट के अदालत में पेश किया गया. मि. खरेघाट बहुत कड़ी सजाएँ देते थे. उन्होंने बालक चन्द्रशेखर से उसकी व्यक्तिगत जानकारियों के बारे में पूछना शुरू किया,
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“मेरा नाम आज़ाद है।”
“तुम्हारे पिता का क्या नाम है?”
“मेरे पिता का नाम स्वाधीन है।”
“तुम्हारा घर कहाँ पर है?”
“मेरा घर जेलखाना है।”

मजिस्ट्रेट मि. खरेघाट इन उत्तरों से चिढ़ गए. उन्होंने चन्द्रशेखर को पन्द्रह बेंतों की सज़ा सुना दी. उस समय चन्द्रशेखर की उम्र केवल चौदह वर्ष की थी. जल्लाद ने अपनी पूरी शक्ति के साथ बालक चन्द्रशेखर की निर्वसन देह पर बेंतों के प्रहार किए. प्रत्येक बेंत के साथ कुछ खाल उधड़कर बाहर आ जाती थी. पीड़ा सहन कर लेने का अभ्यास चन्द्रशेखर को बचपन से ही था. वह हर बेंत के साथ “महात्मा गांधी की जय” या “भारत माता की जय” बोलते जाते थे. जब पूरे बेंत लगाए जा चुके तो जेल के नियमानुसार जेलर ने उसकी हथेली पर तीन आने पैसे रख दिए. बालक चन्द्रशेखर ने वे पैसे जेलर के मुँह पर दे मारे और भागकर जेल के बाहर हो गया. इस पहली अग्नि परीक्षा में उत्तीर्ण होने के फलस्वरूप बालक चन्द्रशेखर का बनारस के ज्ञानवापी मोहल्ले में नागरिक अभिनन्दन किया गया. अब वह चन्द्रशेखर आज़ाद कहलाने लगा. बालक चन्द्रशेखर आज़ाद का मन अब देश को आज़ाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया. उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था. वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये. क्रान्तिकारियों का वह दल “हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ” के नाम से जाना जाता था। (साभार-भारतकोश)

काकोरी काण्ड-

किसी बड़े अभियान में चन्द्रशेखर आज़ाद सबसे पहले “काकोरी काण्ड” में सम्मिलित हुए. इस अभियान के नेता रामप्रसाद बिस्मिल थे. उस समय चन्द्रशेखर आज़ाद की आयु कम थी और उनका स्वभाव भी बहुत चंचल था. इसलिए रामप्रसाद बिस्मिल उन्हें क्विक सिल्वर (पारा) कहकर पुकारते थे. 9 अगस्त, 1925 को क्रान्तिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी नामक स्थान पर सहारनपुर – लखनऊ सवारी गाड़ी को रोककर उसमें रखा अंगेज़ी ख़ज़ाना लूट लिया. बाद में एक–एक करके सभी क्रान्तिकारी पकड़े गए, पर चन्द्रशेखर आज़ाद कभी भी पुलिस के हाथ में नहीं आए. यद्यपि वे झाँसी में पुलिस थाने पर जाकर पुलिस वालों से गपशप लड़ाते थे, पर पुलिस वालों को कभी भी उन पर संदेह नहीं हुआ कि वह व्यक्ति महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद हो सकता है. काकोरी कांड के बाद उन्होंने दल का नये सिरे से संगठन किया. अब उसका नाम ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन एण्ड आर्मी’ रखा गया. चंद्रशेखर इस नये दल के कमांडर थे. वे घूम-घूम कर गुप्त रूप से दल का कार्य बढ़ाते रहे. फरारी के दिनों में झाँसी के पास एक नदी के किनारे साधु के रूप में भी उन्होंने कुछ समय बिताया.

चन्द्रशेखर आज़ाद घूम–घूमकर क्रान्ति प्रयासों को गति देने में लगे हुए थे. आख़िर वह दिन भी आ गया, जब किसी मुखबिर ने पुलिस को यह सूचना दी कि चन्द्रशेखर आज़ाद ‘अल्फ़्रेड पार्क’ में अपने एक साथी के साथ बैठे हुए हैं. वह 27 फ़रवरी, 1931 का दिन था, चन्द्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे. मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक ‘नाटबाबर’ ने आज़ाद को इलाहाबाद के अल्फ़्रेड पार्क में घेर लिया. “तुम कौन हो” कहने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना नाटबाबर ने अपनी गोली आज़ाद पर छोड़ दी। नाटबाबर की गोली चन्द्रशेखर आज़ाद की जाँघ में जा लगी. आज़ाद ने घिसटकर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी गोली दूसरे वृक्ष की ओट में छिपे हुए नाटबाबर के ऊपर दाग़ दी. आज़ाद का निशाना सही लगा और उनकी गोली ने नाटबाबर की कलाई तोड़ दी. एक घनी झाड़ी के पीछे सी.आई.डी. इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छिपा हुआ था, उसने स्वयं को सुरक्षित समझकर आज़ाद को एक गाली दे दी. गाली को सुनकर आज़ाद को क्रोध आया. जिस दिशा से गाली की आवाज़ आई थी, उस दिशा में आज़ाद ने अपनी गोली छोड़ दी. निशाना इतना सही लगा कि आज़ाद की गोली ने विश्वेश्वरसिंह का जबड़ा तोड़ दिया.

बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया. उन्होंने अपने साथी सुखदेव राज को पहले ही भगा दिया था. आख़िर पुलिस की कई गोलियाँ आज़ाद के शरीर में समा गईं. उनके माउज़र में केवल एक आख़िरी गोली बची थी. उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है. अपनी कनपटी से माउज़र की नली लगाकर उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी. गोली घातक सिद्ध हुई और उनका प्राणांत हो गया. इस घटना में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु हो गई और उन्हें पोस्टमार्टम के लिए ले जाया गया. उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार उन्हें तीन या चार गोलियाँ लगी थीं.

चंद्रशेखर आज़ाद के शहीद होने का समाचार जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू को प्राप्त हुआ. उन्होंने ही कांग्रेसी नेताओं और देशभक्तों को यह समाचार बताया. श्मशान घाट से आज़ाद की अस्थियाँ लेकर एक जुलूस निकला. इलाहाबाद की मुख्य सड़कें अवरुद्ध हो गयीं, ऐसा लग रहा था मानो सारा देश अपने इस सपूत को अंतिम विदाई देने के लिए उमड़ पड़ा है. जुलूस के बाद एक सभा हुई. सभा को शचीन्द्रनाथ सान्याल की पत्नी ने सन्बोधित करते हुए कहा- “जैसे बंगाल में खुदीराम बोस की शहादत के बाद उनकी राख को लोगों ने घर में रखकर सम्मानित किया वैसे ही आज़ाद को भी सम्मान मिलेगा.”

27 फ़रवरी, 1931 को चन्द्रशेखर आज़ाद के रूप में देश का एक महान क्रान्तिकारी योद्धा देश की आज़ादी के लिए अपना बलिदान दे गया, शहीद हो गया।

आजाद के ठाठ तो फकीराना थे ही, उनका जीवन सादा पर विचार उच्च थे. कवि श्यामपाल सिंह ने आजाद के बारे में लिखा है:
“स्वतंत्रता रण के रणनायक अमर रहेगा तेरा नाम,
नहीं जरूरत स्मारक की स्मारक खुद तेरा नाम।
स्वतंत्र भारत नाम के आगे जुड़ा रहेगा तेरा नाम,
भारत का जन-मन-गण ही अब बना रहेगा तेरा धाम।।”

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