आनंद द्विवेदी
हाल ही में आपने नवप्रवाह.कॉम में पढ़ा होगा कि कैसे छत्तीसगढ़ में एक साहू परिवार का समाज ने सामूहिक बहिष्कार कर जीवन दुर्वार कर दिया है। सामाजिक चेतना और वैधानिक अवमूल्यन की ऐसी ही परंपरा में महाराष्ट्र सरकार का सराहनीय फैसला सामने आया है। सामाजिक बहिष्कार जैसे घृणित कृत्यों की रोकथाम के लिए महाराष्ट्र सरकार ने सर्वसहमति से सामाजिक बहिष्कार (रोकथाम,निषेध और निवारण) अधिनियम 2016 पारित किया है।
इस अधिनियम के अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति या समूह दूसरे किसी व्यक्ति या समूह का सामाजिक बहिष्कार करता है या ऐसे मामले में किसी भी तरह दोषी सिद्ध होता है, तो उसे तीन सालों तक जेल की हवा खानी पड़ सकती है। साथ ही 1 लाख रुपये तक का अर्थदंड भी भरना पड़ सकता है।
इस कानून के अनुसार आर्थिक दंड में प्राप्त राशि का पूरा या एक हिस्सा पीड़ित व्यक्ति को दिया जाएगा, जिससे वो अपना जीवन सामान्य स्थिति में भी ला सके। देवेन्द्र फडनवीस की अगुवाई वाली महाराष्ट्र सरकार ने बहिष्कार को अपराध का दर्जा दिया है। साथ ही महाराष्ट्र भारत का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जिसने इस सम्बन्ध में कानून भी बना डाला है। इस क़ानून के मुताबिक़ बहिष्कार पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार का कोई भी सदस्य सीधा या तो पुलिस या फिर जज के सामने अपनी शिकायत दर्ज करवा सकता है। चार्जशीट दाखिल होने के 6 महीने के अंदर मामले की सुनवाई पूरी किये जाने और दोषियों को दण्डित किये जाने के प्रावधान हैं।
इसी अधिनियम ने न्यायालय को ये शक्ति दी है कि वह दोषी पाए गए व्यक्ति या समूह को दंड देने से पूर्व सामाजिक बहिष्कार के पीड़ित का बयान सुन सकती है और उसके आधार पर दंड निर्धारित कर सकती है।
विधान सभा के समक्ष इस बिल को लाने से पूर्व सीएम फडनवीस ने परिषद को बताया कि राज्य में सामूहिक बहिष्कार के 68 वाकये सामने आये, जिसमें अकेले रायगढ़ जिले में 633 लोग इसे झेल रहे हैं।