डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
“राजा हरिश्चंद्र” से भारतीय सिनेमा की शुरुआत हुई और समय बीतने के साथ इसने वो जगह पाई, कि आज इससे बड़ा और सशक्त कोई माध्यम ही नहीं है, विचारों को प्रकट करने का, धारणाओं को प्रदर्शित करने का। कभी-कभी ये प्रश्न मन में उठता है, कि क्या फ़िल्मों को बना कर एक बार प्रदर्शित भर कर दिया जाना काफ़ी था? उत्तर खोजने पर पता चलता है, नहीं ऐसा नहीं था।
इसमें कोई दोराय नहीं है कि, दादासाहेब फाल्के ने एक क्रांति का शंखनाद किया था और सिनेमा को पूर्णता देने के लिए, कई कलात्मक विधाओं से, बेहतरीन योद्धा, उस समर के लिए निकले थे, जहां सार्थकता सिद्ध करना ही युद्ध था। एक ऐसे ही कलाकार थे, बाबूराव कृष्ण राव मेस्त्री, जिनका जन्म 1890 में कोल्हापुर में हुआ था और ये इतने दक्ष थे चित्रकला में कि इनका नाम ही पड़ गया, बाबूराव पेंटर।
अपने एक चचेरे भाई आनंदराव के साथ, संगीत नाटक मंडलियों और थिएटर कंपनियों के लिए, ये दोनों भाई चित्रों वाले बैकड्रॉप बनाते थे। इन्होंने एक कैमरा का जुगाड़ कर फ़िल्म बनाने की भी ठानी थी और कैमरे की तकनीकों को सीखने का ज़िम्मा, आनंदराव का था। इस सपने के बीच में ही आनंदराव चल बसे और बाबूराव पेंटर ने अकेले ही ये सपना पूरा किया। वी०जी० दामले उनके नए साथी और शिष्य बने और 1918 में कैमरा और उसकी तकनीकों का अध्ययन पूरा हुआ और 1919 में बाबूराव पेंटर ने महाराष्ट्र फ़िल्म कंपनी की स्थापना की। इन्होंने क़र्ज़ तक लिया और अपने प्रतिभावान मित्रों, दामले, फ़त्तेलाल और वी०शांताराम को जगह दी, अपनी रचनात्मकता को निखारने के लिए। कुछ ही वर्षों के बाद इन तीनों मित्रों ने, अपनी एक अलग कंपनी, प्रभात फ़िल्म कंपनी के नाम से बना ली।
बाबूराव पेंटर ने 1953 तक फ़िल्में बनाईं। “सैरांध्री”, “सावकार पाश”, “उषा”, “प्रतिभा”, “विश्वमित्र”, “महाजन” जेसी फ़िल्में बनाईं।
“बाबूराव पेंटर, पहले फ़िल्मकार थे, जिन्होंने फ़िल्मों के लिए पोस्टर बनाए और एक पुस्तिका भी बनायी, जो प्रचार करने के लिए, प्रयोग में लाई जाती थी। 1923 में आई इनकी फ़िल्म “सिंहगढ़” बहुत कामयाब हुई। ये इतनी सफल रही कि पहली बार मनोरंजन टैक्स भी इसी फ़िल्म पर लगाया गया। ये वीर तान्हा जी के कोंडना दुर्ग के जीतने की घटना पर बनी फ़िल्म थी। “
आज के इस प्रचार युग में जो युक्तियां लगाई जाती हैं, वे नीति और मर्यादा के परे चली जाती हैं। बाबूराव पेंटर ने ऐसा कभी नहीं किया। 1954 में बाबूराव पेंटर चल बसे। इन्हें वो सम्मान आज तक नहीं मिल पाया है, जिसके ये हक़दार थे। सिनेमा से जुड़े लोगों को इनके नाम से प्रतिभावान चित्रकारों को प्रोत्साहन भी देना चाहिए, आपस में एक दूसरे को पुरस्कृत करने के अलावा।
इनकी पेंटिग्स, आज भी J J Art Gallery की दीवारों पर देखी जा सकती हैं और देखने वालों के मूंह से अनायास ही निकल जाता है, “ये कौन चित्रकार है?”
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)