डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
भारतीय सिनेमा का आसमान जितना बड़ा है, उतने ही ज़्यादा हैं, इसके सितारे, जो खो गए, जो बुझ जाने तक की उम्र भी पूरी न कर पाए। ये रंगीन आसमान, सिर्फ ख़ुशी और कामयाबी से ख़ूबसूरत नहीं, इसमें निराशा और असफलता के भी रंग हैं। इसका बहुत बड़ा कारण है, सिनेमा का हर दौर में बदलते रहना। कभी तकनीक बदल गए, तो कभी अंदाज़, कभी अदाकारों का तरीका बदला तो कभी निर्देशकों का। जो कलाकार ढल गए बदलते वक़्त के साथ, वो बचे रहे और जो दिल लगाकर डूब गए थे, उन्हें बदलते वक़्त का अंदाज़ा न लगा, और वे खो गए।
मास्टर विट्ठल का जन्म 1906 में, महाराष्ट्र में ही हुआ था और 18 साल की उम्र में ही ये, फ़िल्मों में, बतौर टेक्नीशियन काम करने लगे। काफ़ी कुछ फ़िल्मों के बारे में सीखा और 1926 में आई “रतन मंजरी” में इन्हें बहैसियत नायक, रोल मिला। इसके पहले ये बाबूराव पेंटर के साथ काम करते रहे थे और पहली फ़िल्म में ये महिला नर्तकी बन कर नाचे थे। फ़िल्म का नाम था, “कल्याण खजीना”।
मूक फ़िल्मों में जल्दी ही ये बहुत प्रसिद्ध हो गए। पहली सवाक् फ़िल्म, “आलम आरा”, 1931 में आई और उसके पहले मास्टर विट्ठल कई स्टंट फ़िल्मों में काम कर चुके थे और इन्हें, भारत का “डगलस फ़ेयरबैंक्स” कहा जाने लगा था। डगलस फ़ेयरबैंक्स अमरीकी मूक स्टंट फ़िल्मों के सुपरस्टार थे और यही रुतबा, मास्टर विट्ठल का भारत में हो चुका था। जब आर्देशिर ईरानी, “आलम आरा” बना रहे थे तो मास्टर विट्ठल के अलावा, और कोई शख़्स नहीं था, जिसे दर्शक, अपना नायक मानते। महबूब ख़ान ने भी इस पहली भारतीय बोलती फ़िल्म का नायक बनने की पूरी कोशिश की थी, लेकिन मास्टर विट्ठल की शोहरत, इतनी ज़्यादा थी कि हिन्दी बहुत ख़राब बोलने के बावजूद, इन्हें ही चुना गया।
“इस ऐतिहासिक फ़िल्म का नायक बनने की ख़ुशी इतनी बड़ी थी कि मास्टर विट्ठल ने ईरानी के सागर स्टूडियो के साथ काम करने के लिए, शारदा स्टूडियो से अपना पुराना अनुबंध तोड़ दिया और इनपर मुक़दमा हो गया। मास्टर विट्ठल की ओर से मुहम्मद अली जिन्ना वक़ील थे। ये मुक़दमा जीत भी गए। लेकिन अब बोलती फ़िल्मों का दौर आ चुका था।”
मास्टर विट्ठल मराठी फ़िल्मों तक ही सीमित हो कर रह गए। काम तो इन्होंने ख़ूब किया लेकिन ललिता पवार और दुर्गा खोटे जैसी अभिनेत्रियों के नायक के रूप में मराठी और मूक फ़िल्मों तक ही सीमित रहे।
मास्टर विट्ठल ने ही पहली बार 1928 की मूक फ़िल्म, “राज तरंग” में डबल रोल निभाया था और हिन्दी फ़िल्मों में भी, अपने निर्देशन में बनी, “आवारा शहज़ादा” में ,1933 में पहली बार डबल रोल की शुरुआत की थी।
मास्टर विट्ठल, 1966 तक, बतौर अभिनेता, डायरेक्टर, निर्देशक, नृत्य और संगीत निर्देशक फ़िल्मों के लिए 42 साल तक काम किया। इन्होंने 90 से ज़्यादा फ़िल्मों में ऐक्टिंग की, 2 फ़िल्में निर्देशित की। लेकिन जैसे जैसे भारतीय सिनेमा, मौलिकता से अनुकरण की ओर बढ़ती गई, इस सितारे की चमक कम होती गई और संवाद के लिए बस एक भाषा में दक्ष होने के कारण भी ये सितारा खो गया। लेकिन बहुत कुछ दिया है मास्टर विट्ठल ने, भारतीय सिनेमा को और उन्हें एकदम भूल जाना, बिल्कुल ठीक नहीं।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)