डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
जिस ठौर बैठे, महफ़िल सी हुई, वीरान सा लगे उठ जाए है जहाँ से, सब हंसे तो मासूम चेहरा लिए सबको हैरत से देखे और जब हैरत में पड़े हो सब, तो ख़ूब हंसे। न डर, न दिखावा, न तकल्लुफ़, न छलावा और बेबाक़ी ऐसी कि शहंशाह से भी बेअदबी कर बैठे, रहम इतना कि सबके दर्द पे रो ले। ऐसी बातें किसी फ़कीराना मिज़ाज शख़्स के बारे में लगती हैं, लेकिन ये बातें एक रईस ख़ानदान की उस औरत के बारे में है, जिसे एक दौर में, सारा हिन्दुस्तान, मौसी कह कर बुलाता था, वैसे उनका नाम था, लीला मिश्रा।
लीला मिश्रा, 1908 में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में, एक बेहद अमीर, ज़मींदार ब्राह्मण परिवार में पैदा हुईं। इनकी तरबियत ऐसे माहौल में हुई जहाँ इनके मिज़ाज में राजसी ठसक भी थी और आला दर्ज़े के ब्राह्मण-संस्कार भी। इनकी ज़िंदगी का एक अरसा बनारस में भी गुज़रा और ये तो सब जानते हैं कि बनारस किसी का नहीं होता, सब बनारस के हो जाते हैं, तो इनके बारे में भी कई बार ये कहा जाता है कि ये बनारस की थीं। वो दौर महिलाओं के लिए बहुत अच्छा न था, सो लीला मिश्रा भी स्कूल न गईं और महज़ 12 साल की उम्र में इनकी शादी राम प्रसाद मिश्रा जी से हो गई।
राम प्रसाद मिश्रा एक आज़ाद ख़याल इंसान थे और वे भी ज़मींदार ख़ानदान से ही थे। इन्हें ऐक्टिंग का शौक़ था और मुंबई में नाटक भी किया करते थे। वहाँ, मामा शिंदे, जो फाल्के साहब के सहायक थे, इनके मित्र थे। जब राम प्रसाद मिश्रा, अपनी पत्नी लीला मिश्रा के साथ मुंबई रहने लगे, तो मामा शिंदे का उनके यहाँ, अकसर आना जाना होता था। एक बार मामा शिंदे ने कहा कि मिश्रा दम्पति, फ़िल्मों में क्यों नहीं काम करते। पहले तो राम प्रसाद मिश्रा जी ने मना किया, लेकिन फिर मान गए। वो ऐसा दौर था, जहाँ मर्द ही औरत बन कर फ़िल्मों में काम करते थे ज़्यादातर। जब ये दोनों तैयार हुए तो राम प्रसाद मिश्रा जी को 150 रुपये और लीला मिश्रा जी को 500 रुपये देने का क़रार हुआ। लेकिन दोनों ने कैमरे के सामने बेहद ख़राब ऐक्टिंग की और ये मौक़ा जाता रहा। ये 1920 के दशक की बात है।
“1926 में फ़िल्म “होनहार” में, शाहू मोदक, नायक थे और लीला मिश्रा, नायिका। एक सीन में इन्हें शाहू मोदक को पकड़ के कहना था कि, ” मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती।” लीला मिश्रा, भड़क गईं और साफ़ मना कर दिया कि अपने पति के अलावा, वे किसी और से, ऐसा व्यवहार नहीं कर सकतीं। क़ानूनी तौर पर इनका क़रार इस तरीके का था फ़िल्म कंपनी के साथ कि वे इन्हें फ़िल्म से हटा नहीं सकते थे, सो उन्होंने, लीला मिश्रा को नायक की मां का किरदार दे दिया और ये ज़बरदस्त कामयाब किरदार रहा। इसके बाद लीला मिश्रा ने पूरी ज़िंदगी में 200 से ज़्यादा फ़िल्में की और हमेशा, दादी, नानी, चाची, मौसी के ही किरदार में ही नज़र आईं। “
“चित्रलेखा” से लेकर “प्यासा” तक और “कॉलेज गर्ल” से लेकर “मंझली दीदी” तक हर बार लीला मिश्रा ने अपने ज़बरदस्त अभिनय की छाप छोड़ी। इनको सबसे ज़्यादा शोहरत मिली, फ़िल्म, “शोले” से, जो 1975 में आई।
देखें फ़िल्म शोले का एक सीन:
1979 में आई, बासु चटर्जी की फ़िल्म, “बातों बातों में” इनका अभिनय देखकर और बाकी फ़िल्मों में भी इनकी अदायगी से प्रभावित होकर, सत्यजीत रे ने इनसे कहा कि वे उनकी फ़िल्मों में काम करें। लीला मिश्रा ने उनसे कहा कि “काम तो करूंगी, लेकिन मुंबई आ कर फ़िल्में बनाओ, मैं कलकत्ते नहीं जाऊंगी।”
लीला मिश्रा खाने पीने की बहुत शौक़ीन थीं और ख़ूब हंसते गाते, खाते पीते 1988 में वे इस दुनिया से चली गईं। आज भी जब कभी किसी सीन में लीला मिश्रा दिखती हैं, एक अजीब सा अपनापन महसूस होता है। इनकी सादगी और साफ़गोई आज तक किसी और कलाकार में नहीं दिखी।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)