डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Cinema Desk
भारतीय समाज में, “विवाह” एक ऐसा मुद्दा है, जो उत्सव भी है, चिंता भी, सहयोग भी है, प्रतिस्पर्धा भी। हमारे समाज में कई ऐसे युवक हैं, जो दहेज प्रथा पर निबंध लिखकर, इससे जुड़ी कानूनी धाराएं रट कर, अधिकारी बनते हैं और फिर ख़ूब दहेज मांगते हैं। लड़की का पिता बहुत कष्ट सहकर उसे दहेज देता है और फिर अपने इस दुख से उबरने के लिए, किसी और लड़की के पिता से प्रतिशोध लेता है, अपने पुत्र के लिए दहेज मांग कर।
ये दहेज लेने, देने का चलन, हमारे समाज को एक जाल की तरह, जकड़ चुका है और इससे तंग आ चुके कई परिवारों ने, इससे बचने के लिए, ज़बरदस्ती विवाह करवाना शुरू कर दिया। बिहार के कुछ ज़िलों में ये ख़ूब हुआ, “पकड़ुआ बियाह” के नाम से। इससे विवाह तो करा दिए गए, कुछ पिताओं के अहंकार का हनन हुआ तो कुछ पिताओं ने प्रतिशोध की संतुष्टि पाई, लेकिन इनके बीच बरबाद हुई, उन युवकों और युवतियों की ज़िंदगी, जिन्हें ज़बरदस्ती, एक दूसरे से बांध दिया गया।
2010 में आई फ़िल्म, “अंतर्द्वन्द”, ऐसे ही एक विवाह की कहानी कहती है। अखिलेन्द्र मिश्रा (महेन्द्र बाबू), अपनी बेटी जानकी (स्वाति सेन) की शादी, विनय पाठक (मधुकर शाही) के बेटे रघुवीर (राज सिंह चौधरी) से करना चाहते हैं और फ़िल्म के पहले ही दृश्य में, अखिलेन्द्र मिश्रा ने लड़की के पिता होने का अर्थहीन अपराध बोध, और विनय पाठक ने लड़के का पिता होने का अनावश्यक अहंकार, अपने शानदार अभिनय से, इस तरह प्रस्तुत किया है कि बिना किसी प्रयास के, दर्शक, कथानक में प्रवेश पा जाते हैं।
विनय पाठक (मधुकर शाही), मना कर देते हैं और आहत होकर अखिलेन्द्र मिश्रा (महेन्द्र बाबू), उनके बेटे रघुवीर (राज सिंह चौधरी) का अपहरण करवा लेते हैं और फिर ज़बरदस्ती शादी करवाते हैं, जिसके फलस्वरूप उनकी बेटी का जीवन बहुत बुरे तरीक़े से प्रभावित होता है और यही लड़के के भी साथ होता है। अहंकार और प्रतिशोध, एक पिता का, सब कुछ तबाह कर देता है। इसी के परिणाम और कारणों के बीच फ़िल्म बढ़ती रहती है।
फ़िल्म की कहानी, मशहूर सिनेमैटोग्राफ़र,व निर्देशक सुशील राजपाल ने लिखी है, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कार से भी नवाज़ा गया। ये फ़िल्म एक सत्य घटना से प्रभावित है और इतने सुन्दर और प्रभावी तरीक़े से इसे दर्शाया है कि इस फ़िल्म को सामाजिक मुद्दे से जुडी़ सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, 2009 में। लेकिन ये फ़िल्म दर्शकों तक पहुंच नहीं पाई ठीक तरह से और भद्दे मज़ाक और द्विअर्थी संवादों से गुदगुदी पैदा करने वाली फ़िल्मों की भीड़ में खो गई। तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने पुरस्कार वितरण समारोह में, अपने भाषण में 5 बार “अंतर्द्वन्द” का ज़िक़्र किया, लेकिन आज तक किसी सैटेलाइट टीवी चैनल पर भी ये फ़िल्म नहीं दिखाई गई है।
इस फ़िल्म ने कला के सामाजिक सेवा के लक्ष्य के प्रति, कलाकारों के समर्पण को भी परिभाषित किया है और यह इस बात से शब्दशः प्रमाणित होता है कि किसी कलाकार ने इस फ़िल्म के लिए, एक भी पैसा नहीं लिया है।
सुशील राजपाल, जिन्होंने अपनी कलात्मक दक्षता, “लागा चुनरी में दाग” जैसी फ़िल्मों में दिखाई है, इस फ़िल्म में अपने चरम पर दिखे हैं और पर्दे पर दिखने वाली भोर और रात, दर्शकों के मन में उजाला और अंधेरा बुन सकने में पूरे तरीके से समर्थ है।
“पितृसत्तात्मक समाज में अधिकतर महिलाओं को ही दुख का भागी होना पड़ता है, लेकिन फ़िल्म के अंतिम दृश्य में, शांति से, गांभीर्य से, अपने स्वाभिमान का प्रदर्शन और धैर्य की उद्घोषणा करती स्वाति सेन (जानकी), फ़िल्म के दुखांत होते हुए भी, एक आशा बिखेरती है। अखिलेन्द्र मिश्रा, हमेशा की तरह अपने किरदार के खाल में पूरी तरह ढके हुए दिखे हैं। विनय पाठक की संवाद शैली में बिहारी जैसा सुनाई पड़ने का प्रयास दिखा है। फ़िल्म में संगीत बापी तुतुल का है, जो प्रशंसनीय है।”
पिता की चिंता, विवाह के असंख्य पेंच और अहंकार के तीन अलग कोण प्रस्तुत करती और एक कथानक से आपस में जुड़ती ये फ़िल्म, सामाजिक मुद्दों के शाश्वत त्रिकोण को दिखाने में पूर्णतया सफल है लेकिन हमारे यहाँ की व्यवस्था/अव्यवस्था ने इसे दर्शकों तक, बहुत प्रभावकारी ढंग से नहीं पहुंचाया है।
देखें फ़िल्म का ट्रेलर:
मैं इस लेख के माध्यम से आग्रह करता हूँ कि इसे और ऐसी फ़िल्मों को कम से कम टेलीविज़न के माध्यम से ही, ज़्यादा से ज़्यादा दर्शकों तक पहुंचाया जाए।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)