नृपेंद्र कुमार मौर्य | navpravah.com
नई दिल्ली | तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने हाल ही में एक कार्यक्रम में धर्मनिरपेक्षता को यूरोप का कॉन्सेप्ट बताते हुए कहा कि भारत को इसकी आवश्यकता नहीं है। उनके इस बयान ने सत्तारूढ़ द्रमुक और कांग्रेस समेत कई राजनीतिक दलों की तीखी प्रतिक्रिया को जन्म दिया है।
रवि ने कन्याकुमारी में कहा, “धर्मनिरपेक्षता यूरोप की एक अवधारणा है, जो वहां चर्च और राजा के बीच संघर्ष के कारण विकसित हुई। भारत एक धर्म का देश है और हमें इसकी आवश्यकता नहीं है।” उन्होंने यह भी कहा कि संविधान के मूल पाठ में ‘धर्मनिरपेक्षता’ का जिक्र नहीं था, बल्कि इसे आपातकाल के दौरान जोड़ा गया था।
इस पर द्रमुक के प्रवक्ता टीकेएस एलंगोवन ने कहा कि राज्यपाल को संविधान पढ़ने की सलाह दी जानी चाहिए, क्योंकि अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता की बात करता है। कांग्रेस सांसद मणिकम टैगोर ने भी रवि के बयानों पर सवाल उठाते हुए कहा कि भारत में धर्मनिरपेक्षता का मतलब सभी धर्मों और परंपराओं का सम्मान करना है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी राजा ने इस मुद्दे पर चिंता व्यक्त की, जबकि सीपीआईएम की नेता वृंदा करात ने इसे शर्मनाक बताते हुए कहा कि राज्यपाल को धर्मनिरपेक्षता के महत्व को समझना चाहिए, जो कि हमारे संविधान का एक अभिन्न हिस्सा है।
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ स्पष्ट करते हुए विशेषज्ञों का कहना है कि यह सरकार को धर्म से दूर रखने और सभी नागरिकों के धार्मिक अधिकारों का सम्मान करने की अवधारणा है। भारतीय संविधान में इसे विभिन्न संदर्भों में देखा गया है और 1976 में पंथ निरपेक्षता के रूप में पुनर्परिभाषित किया गया।
यह विवाद स्पष्ट करता है कि धर्मनिरपेक्षता का विषय भारतीय राजनीति में कितना संवेदनशील और महत्वपूर्ण है, और यह देश की विविधता को कैसे प्रभावित करता है।
सेक्युलरिज्म का मतलब
धर्मनिरपेक्षता, जिसे अंग्रेजी में सेक्युलरिज्म कहते हैं, का अर्थ है कि सरकार और राज्य को धर्म से पूरी तरह अलग रखा जाए। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी धर्म का विरोध किया जाए, बल्कि यह है कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों का पालन करने की स्वतंत्रता दी जाए। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हर नागरिक के साथ समानता से पेश आता है, चाहे उनकी धार्मिक पहचान जो भी हो।
सेक्युलरिज्म का इतिहास
सेक्युलरिज्म की अवधारणा सबसे पहले यूरोप में विकसित हुई, जहाँ धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के बीच संघर्ष हुआ। भारत में इसका परिचय अंग्रेजों के समय में हुआ, जब उन्होंने धर्म के आधार पर समाज में विभाजन किया। आज़ादी के बाद, भारतीय संविधान ने धर्मनिरपेक्षता को एक मूलभूत सिद्धांत के रूप में अपनाया, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है।
भारतीय संविधान में सेक्युलरिज्म
1976 में, भारतीय संविधान के 42वें संशोधन के तहत पंथ निरपेक्षता को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सरकार किसी विशेष धर्म का पक्ष न ले और सभी नागरिकों को अपनी धार्मिक मान्यताओं का पालन करने का अधिकार मिले।