डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
भारत भूमि हमेशा संस्कृतियों के संगम का द्योतक रही है और यहां की सहिष्णुता और सम्मिलित होने की भावना इतनी प्रबल रही है कि यहां हर काल में सभी शाश्वत दिशाओं से आने वाली हर सार्थक प्रवृत्ति , हर सुन्दर भाषा और हर रचनात्मक दृष्टिकोण का स्वागत हुआ है। भारत जैसे देश में , जिसने सबसे पहले वसुधैव कुटुम्बकम की बात कही, समय और राजनीति ने कई बार कोलाहल पैदा किया। निजी स्वार्थ और परिवारवाद की जड़ें इतने अंदर तक चली गयीं की परिस्थितियों के रूप में जो फल निकले, वे विषाक्त थे।
1980 का दशक वो दशक था जब पूरा विश्व वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सहारे एक नए युग का स्वागत कर रहा था या करने की तैयारी कर रहा था। लेकिन भारत में परिस्थितियां सामान्य नहीं थी। राजनैतिक उथल-पुथल ने माहौल बिगाड़ दिया था और इस देश के अभिन्न अंग भी अपने को अलग-थलग पा रहे थे। ऐसे में आवश्यकता थी एक ऐसी प्रस्तुति की, जो ये याद दिला सके कि हम सब एक हैं। दूरदर्शन ही एक ऐसा माध्यम था जिसके सहारे एक बार में बात दूर तक कई लोगों तक एक साथ पहुंचाई जा सकती थी। दूरदर्शन ने इस ज़िम्मेदारी को समझा और उस पूरी पीढ़ी को उपहार स्वरुप एक गीत मिला जिसने न केवल देशप्रेम और एकता की भावना को प्रबल किया, हमारी स्मृतियों का एक हिस्सा बन कर हृदय के एक कोने में हमेशा के लिए स्थित हो गया।
गीत था “मिले सुर मेरा तुम्हारा”, इसके शब्द , श्री पीयूष पांडेय के थे और श्री अशोक पटकी ने इसे राग भैरवी पर आधारित किया , क्योंकि यही पंडित भीमसेन जोशी जी की इच्छा थी। राग भैरवी को वैसे भी सदा सुहागन राग कहा जाता है और किसी भी मंगल भावना को इसमें लयबद्ध करना प्रभावकारी होता है। लुइ बैंक्स ने इसे व्यवस्थित करने की ज़िम्मेदारी ली और अपने अत्यंत प्रशंसनीय कौशल से एक सुन्दर गीत बनाया।
इस गीत को लोक सेवा संचार परिषद् के संरक्षण में बनाया गया और 17 गीतों को नकार कर श्री पीयूष पांडेय को चुना गया।
“ऐसा प्रचलित है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्री राजीव गाँधी ने जयदीप समर्थ के साथ इस गीत को रचने के लिए कलाकारों को प्रेरित करने की योजना बनाई थी। ये बिलकुल संभव है क्योंकि पंजाब की स्थिति बहुत खराब रही थी 1984 के बाद और इसे संभालने के लिए ऐसा कुछ करना आवश्यक भी था। सुरेश मल्लिक और कैलाश सुंदरनाथ ने मिलकर इस से पहले “टॉर्च ऑफ फ्रीडम ” भी 1985 में, इसी उद्देश्य से बनाया था।”
इस बार भी ज़िम्मेदारी इन्हे ही दी गयी। भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरोधा पंडित भीमसेन जोशी जी से इस गीत की शुरुआत की गयी और वहीं इसे शूट किया गया जहां मशहूर लिरिल का प्रचार बनाया गया था यानि कि पाम्बर जलप्रपात के पास, जिसे अब लिरिल जलप्रपात के नाम से भी जाना जाता है। इस गीत के लिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से महान और प्रसिद्ध लोगों को चुना गया और उत्तर से लेकर सुदूर दक्षिण तक के सभी प्रसिद्ध चेहरों और भाषाओं को अंग्रेजी वर्णमाला के हिसाब से क्रमवार तरीके से प्रस्तुत किया गया। गीत के बोल हर भाषा में यही कहते थे, “मिले सुर मेरा तुम्हारा “।
चूंकि सिनेमा भी एक सशक्त माध्यम बन चुका था तब तक, तो उसमे काम करने वाले कलाकारों से भी सम्मिलित होने का आग्रह किया गया। सबने इस आमंत्रण को स्वीकार किया, नसीरुद्दीन शाह के अलावा।
कमाल हसन के साथ दक्षिण के और बहुत से प्रसिद्ध चेहरे इस गीत की प्रस्तुति का हिस्सा बने। इस गीत को 1988 में स्वतन्त्रता दिवस के दिन पहली बार प्रसारित किया गया। 2010 में दोबारा, “फिर मिले सुर मेरा तुम्हारा” नाम का एक गीत बनाया गया और इस बार महान संगीतकार ए०आर०रहमान ने संगीत दिया। सब कुछ सुन्दर था लेकिन 1988 में प्रसारित “मिले सुर मेरा तुम्हारा” आज भी हम सब की स्मृतियों में जीवित है।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, फ़िल्म समालोचक, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)