डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
रहा करते हैं इसी कहकशां में सारे किरदार और उनकी ख़ूबियां, और जब रूह किसी जिस्म को पा कर, नमूदार होती है ज़मीं पर तो एक शख़्सियत सबको नज़र आती है, वो दुआएं जो लेकर आता है शख़्स, उसका असर दिखता है बस। यही वजह है कि कभी-कभी हमारा सामना एक ऐसी शख़्सियत से हो बैठता है, जिसमें एक साथ इतनी सलाहियत होती है कि हैरत में पड़ जाते हैं हम। मनमोहन कृष्ण भी एक ऐसी ही शख़्सियत थे।
मनमोहन का जन्म, 1922 में लाहौर में हुआ। लाहौर की हवा में अदब और तहज़ीब हुआ करती थी उस दौर में, सो इसका असर मनमोहन कृष्ण पर भी पड़ा। इनकी तरबियत और कॉलेज तक की पढ़ाई यहीं हुई। मनमोहन पढ़ने में बहुत अच्छे थे। इन्होंने M.Sc. किया, वो भी फ़िज़िक्स में और फिर यहीं पढ़ाना भी शुरु कर दिया कॉलेज में।
मनमोहन कृष्ण अपनी ज़िंदगी में बहुत जल्दी, वो सब पा चुके थे, जो एक कामयाब इंसान के लिए ज़रूरी है, दुनिया के हिसाब से। लेकिन कुछ हिसाब दिल के भी होते हैं, जो दुनिया के सामने नहीं हारते। वैसे ही कुछ हिसाबों का हल, मनमोहन रेडियो में खोजना चाहते थे।
” मनमोहन को रेडियो में काम करने का बहुत शौक़ था, इन्होंने अर्ज़ी भी दे दी इसके लिए और इंटरव्यू के लिए बुला भी लिए गए। वहाँ इनसे कहा गया कि “आप M.Sc हैं, टेक्निकल साइड के लिए अर्ज़ी दें”, और जब वहाँ अर्ज़ी दी, तो कहा गया, “आपने तो इतना सांस्कृतिक कार्यक्रम किया है, बतौर कलाकार काम करने के लिए अर्ज़ी दें। “
मनमोहन को आगे कुछ और तो करना ही था, तो रेडियो और टेलीविज़न के क्षेत्र में और आगे पढ़ने के लिए, इन्होंने मुंबई की एक संस्था में अर्ज़ी दे दी। वहाँ से भी बुलावा आ गया। ये मुंबई आ गए और किसी जानने वाले के यहाँ एक दावत में गए, जहाँ बहुत बड़ी फ़िल्मी हस्तियां भी मौजूद थीं।
मनमोहन फ़िल्मों में किसी को ज़्यादा जानते न थे। यहाँ इन्होंने एक गाना गाया और गाना सुनकर, एक जनाब, इनसे मुख़ातिब हुए और इनकी तारीफ़ की। ये भी पूछ लिया कि क्या मनमोहन फ़िल्मों में काम करना चाहेंगे? मनमोहन को बिल्कुल भी पता न था, ये जनाब ख़ुद अज़ीम फ़िल्मकार, वी० शांताराम थे।
वी० शांताराम की फ़िल्म, “अपना देश”, जो 1949 में आई, और यहीं से मनमोहन कृष्ण के फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत हुई। मनमोहन को गायक बनने का शौक़ था लेकिन बन गए अभिनेता। हालांकि, देव आनंद की फ़िल्म, “अफ़सर” जिसमें महान एस०डी० बर्मन का संगीत था, एक गाना, “झट खोल दे”, इन्होंने गाया। इसके बाद 1952 में आई, “बैजू बांवरा” और फिर इनकी चल पड़ी।
40 के दशक से शुरु होकर, 80 के दशक तक इनका फ़िल्मी सफ़र चला। “नया दौर” से लेकर “वक़्त”, “हमराज़” से लेकर “दीवार” तक, इन्होंने 250 से भी ज़्यादा फ़िल्में की और चोपड़ा बंधुओं की फ़िल्मों का तो, ये हिस्सा सा बन गए थे। इनपर फ़िल्माया गया गाना, ” तू हिन्दू बनेगा, न मुसलमान बनेगा” , आज भी सब के ज़हन में ज़िंदा है।
मनमोहन कृष्ण के अंदर सीखने की बड़ी अच्छी आदत थी। वे ऐक्टिंग के साथ, फ़िल्म के और हिस्सों के बारे में भी सीखते रहते थे। इसी का नतीजा हुआ कि जब यश चोपड़ा, “नूरी” बना रहे थे, तो निर्देशन का ज़िम्मा, मनमोहन कृष्ण को ही दिया गया। ये 1979 की बात है।
इसके बाद इनका फ़िल्मों में काम करना कम हो गया और 1990 में 68 साल की उम्र में, इन्होंने ये दुनिया छोड़ दी।
इनकी शख़्सियत से शराफ़त झलकती थी और इनका हर अंदाज़, इनके ज़हीन होने का सबूत था। हिन्दी सिनेमा की दुनिया में मनमोहन कृष्ण एक नायाब नगीने की तरह याद किए जाएंगे।
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)