डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
कुछ लोग और कुछ चीज़े, इतनी सहल होती हैं कि लगातार हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बनी रहती हैं| जब तक ये हमारे साथ, हर रोज़ होते हैं, न इनके खो जाने का डर होता है, न इनके होने की कोई ख़ास ख़ुशी| ये लोग, ये चीज़े, बिना कोई शोर मचाए, चुपचाप चले भी जाते हैं और अचानक याद आते हैं हमें, जब हमारे अंदर कोई ख़ालीपन महसूस होता है| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इनका होना एक अदद ज़िंदगी बनाती है| मनोहर सिंह, एक आदत थे, हर उस इंसान के लिए, जिसने ज़रा सा भी ध्यान दिया हो गुज़रते हुए वक़्त पर|
इनका जन्म 1938 में, शिमला से कुछ दूर, क्वारा नाम के गांव में हुआ| वहीं इन्होंने पढ़ाई की और वहीं नौकरी भी की| 1968 में ये NSD, दिल्ली पहुंचे और 1971 में ग्रेजुएट होने के बाद वहीं दिल्ली में, नाटकों का निर्देशन और अभिनय शुरू कर दिया| NSD की रिपर्टरी कंपनी के लिए, ये लगातार निर्देशन करते रहे| 1971 में आई, “क़त्ल की हवस”, इनके द्वारा निर्देशित, पहला नाटक था| इन्होंने नाटकों के लिए ख़ूब काम किया| “तुग़लक”, “नागमंडलम”, “हिम्मत माई” जैसे नाटकों में इन्होंने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी|
“NSD की रिपर्टरी कंपनी के प्रमुख भी रहे मनोहर सिंह, 1976 से 1988 तक. इस बीच और इसके बाद भी, कई फ़िल्मों में इन्होंने यादगार किरदार निभाए. इनकी पहली फ़िल्म, इमरजेंसी की कहानी दर्शाती, “क़िस्सा कुर्सी का”, थी. इसके बाद गोविंद निहलानी के निर्देशन में आई, “पार्टी”, 1984 में आई. इसे NFDC ने प्रोड्यूस किया था. इसके बाद तो मनोहर सिंह, हर तरह की फ़िल्मों में नज़र आने लगे.”
“दामुल”, “तमस”, “मैं आज़ाद हूं”, “डैडी”, “एक दिन अचानक” से लेकर, “चांदनी”, “लेकिन”, “लम्हे”, “सड़क”, “रूदाली” जैसी तमाम बड़ी फ़िल्मों में, अपने अभिनय का लोहा मनवाया| “तिरंगा” में, “जीवन लाल तंडेल” की भूमिका में भी, ये बड़े बड़े अभिनेताओं के बीच, अपना रंग जमाते नज़र आए| इसके अलावा भी कई फ़िल्में, इन्होंने की|
टीवी पर भी, मनोहर सिंह, ख़ूब नज़र आए| “मुल्ला नसरुद्दीन” और “पल छिन” जैसे धारावाहिकों में भी इनका अलग अंदाज़ दिखा| 1990 में, उर्दू शायरों पर आधारित “कहकशां” में, इनके द्वारा निभाया गया, फ़िराक़ गोरखपुरी का किरदार आज भी याद आता है|
मनोहर सिंह, 80 और 90 के दशक में बढ़ रही पीढ़ी के लिए भी एक परिचित चेहरा हैं| राष्ट्रीय साक्षरता मिशन को प्रचारित करने के लिए एक छोटी सी फ़िल्म में, जब ये अपने ब्रश से एक निर्धन बच्चे के गाल पर शेविंग क्रीम लगाते थे और बैकग्राउंड में “पूरब से सूर्य उगा”, गाना बजता था, तो मुस्कुराते हुए मनोहर सिंह, अपने ही दादा, नाना से लगते थे और उस प्रचार वाले बच्चे के साथ हमें भी पढ़ने की प्रेरणा मिलती थी|
1982 में इन्हें, “संगीत नाटक अकादमी” अवार्ड दिया गया था| 2002 में इनकी मृत्यु हो गई| NSD में 2003 से इनकी स्मृति में, वार्षिक पुरस्कार दिए जाते हैं|
इनको ख़ूब सम्मान मिला और काम भी, लेकिन बस लंबा वक़्त बिताने की वजह से लाइफ़टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने की परंपरा वाले, कुछ परिवारों के बीच सीमित रहने वाले, हिन्दी सिनेमा की दुनिया में, मनोहर सिंह से और भी बहुत कुछ सीखा जा सकता था|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)