अमित द्विवेदी | Editorial Desk
एक कहावत है, “दूर के ढोल सुहावने होते हैं।” हम औरों की तो जी भर के तारीफ करते हैं, लेकिन जब बात अपनों के क़द्र की आती है, तब अक्सर हम उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं। ऐसे अनेकों भारतीय हैं, जिन्हें विदेशों में ख़ूब प्यार-सम्मान मिला, लेकिन भारत ने उन्हें कभी वह स्थान नहीं दिया, जिसके वे हक़दार थे। ऐसे ही एक विभूति थे, विधिवेत्ता डॉ. राधाविनोद पाल।
डॉ. राधाविनोद पाल एक साहसी विधिवेत्ता एवं न्यायाधीश थे। 27 जनवरी, 1886 को जन्मे डॉ. राधाविनोद पाल एक ऐसे न्यायाधीश थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के ख़िलाफ़ चलाये गये, अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध निर्णय देने का साहस किया था। उस समय विजयी होने के कारण मित्र राष्ट्रों का गुमान सर चढ़ कर बोल रहा था।
मित्र राष्ट्र (अमरीका, ब्रिटेन, फ्रान्स आदि देश) जापान को दण्ड देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध की समाप्ति के बाद ‘क्लास अ वार क्राइम्स’ नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के ख़िलाफ़ अपराधी माना गया था। इसके आधार पर जापान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो तथा दो दर्जन अन्य नेता व सैनिक अधिकारियों को युद्ध अपराधी बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया। 11 विजेता देशों द्वारा 1946 में निर्मित इस अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण (इण्टरनेशनल मिलट्री ट्रिब्यूनल फार दि ईस्ट) में डॉ. राधाविनोद पाल को ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था।
इस मुकदमे में दस न्यायाधीशों ने तोजो को मृत्युदंड दिया, लेकिन डॉ. राधाविनोद पाल ने न केवल इसका विरोध किया, बल्कि इस न्यायाधिकरण को ही अवैध क़रार दिया। इस घटना की वजह से जापान में आज भी उन्हें एक महान व्यक्ति की तरह सम्मान दिया जाता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के लगभग 20 लाख सैनिक तथा नागरिक मारे गये थे। राजधानी टोक्यो में उनका स्मारक बना है। इसे जापान के लोग मंदिर की तरह पूजते हैं। यासुकूनी नामक इस समाधि स्थल पर डॉ. राधाविनोद का स्मारक भी बना है।
डॉ. राधाविनोद के सम्मान का अन्दाज़ा आप जापान के सर्वोच्च धर्मपुरोहित नानबू तोशियाकी द्वारा लिखित प्रशस्ति से लगा सकते हैं। उन्होंने लिखा है कि हम यहां डॉ. पाल के जोश और साहस का सम्मान करते हैं, जिन्होंने वैधानिक व्यवस्था और ऐतिहासिक औचित्य की रक्षा की। हम इस स्मारक में उनके महान कृत्यों को अंकित करते हैं, जिससे उनके सत्कार्यों को सदा के लिए जापान की जनता के लिए धरोहर बना सकें।
“आज जब मित्र राष्ट्रों की बदला लेने की तीव्र लालसा और ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ठंडे हो रहे हैं, सभ्य संसार में डॉ. राधाविनोद पाल के निर्णय को सामान्य रूप से अन्तरराष्ट्रीय कानून का आधार मान लिया गया है।”
डॉ. पाल का जन्म 27 जनवरी, 1886 को ग्राम सलीमपुर (जिला कुश्तिया, बंगलादेश) में हुआ था। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी महाविद्यालय तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई करने के बाद वे इसी विश्वविद्यालय में 1923 से 1936 तक अध्यापक रहे। 1941 में वे कलकत्ता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश पद पर आसीन हुए। इसके अलावा वे तत्कालीन अंग्रेज शासन के सलाहकार भी रहे। यद्यपि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कानून का औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान के विरुद्ध ‘टोक्यो ट्रायल्ज’ नामक मुकदमा शुरू किया गया, तो उन्हें इसमें न्यायाधीश बनाया गया।
डॉ. पाल ने अपने निर्णय में लिखा कि किसी भी घटना के बाद उसके बारे में क़ानून बना दिया जाना सर्वथा अनुचित है। उनके इस निर्णय की सभी ने ख़ूब तारीफ़ की। भारत के इस महान विभूति की हुई उपेक्षा का अन्दाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि डॉ. पाल ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में ग़रीबी के कारण अत्यन्त कष्ट भोगते हुए 10 जनवरी, 1967 को परलोक सिधार गए।
दिसम्बर 2016 में आई मिनीसीरीज़ “टोक्यो ट्रायल” इस ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। गौरतलब है कि भारतीय सिनेमा के अभिनय पुरोधा माने जाने वाले इरफ़ान खान ने इसमें जस्टिस राधाविनोद पाल की भूमिका निभाई है। बतौर जस्टिस पाल, इरफ़ान ने इस चरित्र को एकदम जीवंत कर दिया है। नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध यह मिनीसीरीज़ जापान-नीदरलैंड-कनाडा का संयुक्त निर्माण है जिसको बेहद खूबसूरती से निर्देशित किया है पीटर वेरहोफ और रॉब डब्ल्यू किंग ने।
इरफ़ान स्क्रीन पर पूरी तरह छा जाने वाले मंझे कलाकार हैं। मिनीसीरीज़ देखने पर ऐसा महसूस होता है कि जस्टिस पाल की भूमिका के लिए विदेशी फिल्मकारों का चयन इरफ़ान खान, बिल्कुल सही सिद्ध हुआ।
(लेखक, नवप्रवाह मीडिया नेटवर्क्स प्रा.लि. के एडिटर इन चीफ़ हैं)