डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
आवाज़, रफ़ीक़ा होती है रूह की और रह जाती है, ठहर जाती है, हमेशा के लिए, उसी की तरह, उसी के साथ| कभी लम्हात का बयान बन कर तो कभी यादों का तरन्नुम बन कर, आवाज़ ही पहचान बनती है और यही पहचान याद रहती है ज़माने को| भूलना भी चाहे दुनिया उस अंदाज़ और आवाज़ को, तो रोशनाई, इस क़दर रवां होकर अल्फ़ाज़ों का ठिकाना बनाती है पन्नों को कि याद आ ही जाते हैं वो नाम और शारदा राजन आयंगर या शारदा, एक ऐसा ही नाम है|
शारदा, 1937 में, तमिलनाडु में पैदा हुईं और बचपन से ही मौसिक़ी में उनकी दिलचस्पी रही| उन्होंने कर्नाटक शैली में संगीत सीखा भी| वे तेहरान किसी वजह से गई हुई थीं और एक परिचित, श्रीचंद आहूजा के यहाँ किसी पार्टी में थीं, वहाँ उन्होंने एक गाना गाया, जो राज कपूर को बहुत पसंद आया, जो इत्तेफ़ाकन वहीं मौजूद थे| तुरंत ही उन्हें भारत में, उनसे मिलने को कहा राज कपूर ने|
1966 में उन्हें शंकर-जयकिशन ने, फ़िल्म “सूरज” में गाने का मौक़ा दिया| इस फ़िल्म में इनका गाया हुआ गाना, “तितली उड़ी, उड़ के चली”, इतना मशहूर हुआ कि उस साल का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड देने में मुश्किल हो गई, क्योंकि उस वक़्त तक गाने के लिए एक ही अवार्ड दिया जाता था, या तो गायक या गायिका| एक तरफ़ शारदा का ये गीत था, और दूसरी तरफ़, मो० रफ़ी का गाया, “बहारों फूल बरसाओ”, आख़िरकार अवार्ड तो रफ़ी साहब को ही मिला, लेकिन शारदा की वजह से, 1966 ही वो साल बना जब ये फ़ैसला लिया गया कि अब दो अलग अवार्ड गाने के लिए, दिए जाएंगे, एक गायक को और एक गायिका को|
“अगले ही साल, राज कपूर ने, अपने वादे के मुताबिक़, “अराउण्ड द वर्ल्ड” में उन्हें मौक़ा दिया और , “दुनिया की सैर कर लो”, ” ये मंज़र देख कर जाना”, जैसे गीत गा कर, शारदा, भारी पड़ने लगीं, लता मंगेशकर और आशा भोंसले पर. हालांकि शारदा की आवाज़ थोड़ी अलग थी और दक्षिण भारतीय होने की वजह से तलफ़्फ़ुज़ का भी कुछ मसला था, लेकिन ये ही पसंद आया सुनने वालों को.”
शारदा ने हलचल पैदा कर दी थी| 1968-71 तक लगातार चार साल इन्हें, सबसे अच्छी गायिका के लिए, फ़िल्मफ़ेयर में नामित किया गया और दो बार इन्हें ये अवार्ड मिला भी| सब कुछ मुश्किल हो रहा था शीर्ष पर बने हुए लोगों के लिए|
सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था| 1971 में, “सिज़्लर्स” नाम से एक पॉप ऐल्बम रिलीज़ कर के, शारदा, भारत की पहली निजी ऐल्बम रिलीज़ करने वाली महिला बनीं| अब शारदा, हर अंदाज़ में गा रही थीं| शास्त्रीय के साथ पॉप को भी आसानी से गा लेना अद्भुत था| इतने रंग और अलग अंदाज़ नहीं थे उस दौर की, किसी भी और गायिका में| अचानक से शारदा को काम मिलना कम हो गया| उनके गाने रिकॉर्ड तो कराए जाते थे, लेकिन जब फ़िल्म आती थी, तो वे गाने निकाल दिए जाते थे| ये क्यों हो रहा था, मासूम शारदा समझ ही नहीं पाईं, और जब तक समझीं, लोग उन्हें भूलने लगे थे| इन्होंने बहैसियत म्यूज़िक डायरेक्टर भी काम करना चाहा| रफ़ी और लता ने भी इनके निर्देशन में गाया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली| 1986 में शंकर के निर्देशन में अपना आख़िरी फ़िल्मी गीत इन्होंने गाया|
अब भी ये गाती हुई नज़र आती हैं कहीं कहीं, किसी मंच पर गाती हुई| इन्होंने कभी शिकायत नहीं की, लेकिन ये जान गईं, कि दुनिया में दो ही तरीक़े हैं महान बनने के, या तो अपनी क़ाबिलियत से आप सबसे आगे चलें या रोक दें किसी आगे जा रहे क़ाबिल को, और फ़िल्मी दुनिया में, दूसरा रास्ता ही चुना जाता है, शालीनता के लिबास में अपनी शख़्सियत को ढक कर|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)