डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
सलाहियत और ज़हानत, ऐसी नेअमत हैं, जो किसी किसी को मिलती हैं| कभी कभी कोई इसमें अपनी कोशिशों से इज़ाफ़ा कर लेता है, तो कोई नाज़ कर बैठता है और नाकाम रह जाता है उसका इल्म| कुछ शख़्स ऐसे होते हैं जिन्हें क़ुदरत ने बहुत सारी खूबियां दी होती है और उसे चुनना होता है कि किस हुनर से वो क़ायनात का शुक्रिया अदा करे| चित्रगुप्त श्रीवास्तव, एक ऐसे ही हरफनमौला और कलंदर क़िस्म के इंसान का नाम था|
चित्रगुप्त, बिहार के सारण ज़िले (अब ज़िला के विभाजन के बाद गोपालगंज) में, एक सुशिक्षित कायस्थ परिवार में पैदा हुए| ये बेहद ज़हीन थे बचपन से ही| इन्हें हिन्दी के अलावा, उर्दू, फ़ारसी, संस्कृत और अंग्रेज़ी का भी ज्ञान था| इन्होंने, अर्थशास्त्र और पत्रकारिता, दोनों में MA किया और पटना कॉलेज में लेक्चरर भी बहाल हुए| ज़िंदगी एक ख़ूबसूरत शक्ल ले रही थी, लेकिन चित्रगुप्त को मौसिक़ी का ऐसा शौक़ था कि 1946 में, सब छोड़ कर ये मुंबई चले गए| म्यूज़िक डायरेक्टर या गायक बनने|
मुंबई में अपने दोस्त मदन सिन्हा की मदद से, कई लोगों से मिले और बतौर असिस्टेंट मशहूर संगीतकार एस०एन० त्रिपाठी की शागिर्दी में चले गए| इसके पहले वे मन्ना डे के साथ, हरिप्रसन्न दास की शागिर्दी में भी रहे|
मौसिक़ी की समझ बेमिसाल थी, सो 1946 से ही काम मिलना शुरू हो गया| 1946 में आई “लेडी रॉबिनहुड” में दो गाने चित्रगुप्त ने गाए| चित्रगुप्त को शोहरत मिली, 1952 में आई “सिन्दबाद द सेलर” से, जिसमें मो० रफ़ी ने इनके निर्देशन में गाया| इस फ़िल्म का गाना, “अदा से झूमते हुए”, बहुत मशहूर हुआ|
” 1952-54 के बीच, चित्रगुप्त ने सिर्फ़ छोटे बजट की स्टंट या धार्मिक फ़िल्मों में संगीत दिया. ये भी कहा जा सकता है कि, उन्हें यही फ़िल्में मिलीं. इस दौरान इन्होंने 15 धार्मिक फ़िल्मों में संगीत दिया. ये दौर काल्पनिक धर्मनिरपेक्षता को प्रदर्शित करने का दौर था और ज़िम्मेदारी, बहुसंख्यक आबादी पर थी. ऐसे समय में धार्मिक गाने बनाना अच्छा नहीं लगा कुछ लोगों को, जिन्होंने हिन्दी सिनेमा जगत को एक क्षेत्र विशेष का हक़ समझ रखा था. लेकिन प्रतिभा कहाँ छिपती है. “
1957 में आई फ़िल्म, “भाभी” में, मो०रफ़ी का गाया, “चल उड़ जा रे पंछी”, 1959 में “लागी छूटे ना, अब तो सनम” और 1961 में आई फ़िल्म, “ज़बक” में “तेरी दुनिया से दूर, हो के चले मजबूर” ने जता दिया कि चित्रगुप्त अपने दौर के किसी भी अज़ीम मौसिक़ार से कम नहीं|
इसके बाद भी ये काम करते रहे, लेकिन कोई बहुत बड़ी फ़िल्म इन्हें नहीं मिली| चित्रगुप्त हमेशा कहते थे कि, “फ़िल्म छोटी हो या बड़ी, संगीत हमेशा बेहतरीन होना चाहिए|” इन्होंने कुछ पंजाबी और गुजराती फ़िल्मों में भी संगीत दिया|
हिन्दी सिनेमा की दुनिया में अपने शर्तों पर रहने वाले, किसी के संरक्षण में न रहने वाले और औसत से बहुत ऊपर के स्तर पर काम करने वाले लोगों के शोहरत की उम्र लंबी नहीं होती| चित्रगुप्त भी अब अपने कुछ बेहतरीन गीतों के ज़रिए ही कभी कभी याद किए जाते हैं|
उनके बेटों, आनंद और मिलिंद ने 1988 में “क़यामत से क़यामत तक” में अपना संगीत देकर, हिन्दी फ़िल्मों में मधुर गीतों का एक नया दौर शुरू किया| इसी साल चित्रगुप्त ने, “शिव गंगा” के रूप में, अपनी आख़िरी फ़िल्म की|
1991 में चित्रगुप्त ने ये दुनिया छोड़ दी| वे अपने दौर के सबसे शिक्षित म्यूज़िक डायरेक्टर थे| उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वो देने में, हमेशा की तरह फ़िल्म जगत चूक गया|
बिहार, विशेषकर सारण की, कला के मामले में बेहद उर्वर ज़मीन से भिखारी ठाकुर के बाद और अखिलेन्द्र मिश्रा से पहले, इसी महान कलाकार ने अपनी छाप, पूरे देश पर छोड़ी थी|
फ़िल्म जगत और उससे पहले राज्य सरकार को, चित्रगुप्त के नाम से किसी पुरस्कार को देने का चलन शुरू करना चाहिए|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)