डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
गुज़रने के बाद भी अगर हयात में ठहरना हो, किसी के दिल तक जाना हो, कोई बात भूलनी हो या किसी को हर रोज़ याद आना हो, ज़रिया एक है, एक ही सूरत निकलती है, किसी पन्ने पर अश’आर बन के ठहर जाना, जज़्बातों के निशान किसी दीवान में छोड़ जाना, किसी ग़ज़ल का मक़्ता हो जाना या किसी आवाज़ का मतलब बन जाना, मतलब कुछ लिख जाना| ये वही ज़मीन है, जहाँ रोज़ ग़ालिब ज़िंदा होते हैं, जहाँ कालिदास कभी नहीं मरते हैं| यहाँ, अदब की इज़्ज़त रही है और अदीब की क़द्र| अगर किसी दौर में ऐसा न भी हुआ हो, तो वक़्त ने करवाया है| योगेश गौड़, एक ऐसे ही शायर का नाम है|
1943 में, लखनऊ में पैदा हुए, योगेश के पिता, PWD में काम करते थे, अच्छी आमदनी थी, परिवार बड़ा था और ईमानदार भी थे| ईमानदारी और अमीरी एक साथ बसर करते नहीं, सो इनके घर भी न किया| योगेश जब इंटरमीडिएट की परीक्षा देने वाले थे, इनके पिता गुज़र गए| इनके ऊपर ज़िम्मेदारी आ गई और इनके रिश्तेदारों ने मुह मोड़ लिया|
दुनिया के असली रंगों को देखकर हैरान, ये अपने दोस्त सत्यप्रकाश तिवारी के साथ मुंबई चले गए, कुछ बेहतर करने की उम्मीद में| इनकी बुआ के लड़के, व्रजेन्द्र गौड़, बड़े लेखक थे फ़िल्मों के| उस वक़्त तक वे, “परिणीता” जैसी फ़िल्मों के डायलॉग और पटकथा लिख चुके थे और आगे जा कर “कटी पतंग” जैसी फ़िल्में भी इन्होंने लिखी| लेकिन यहाँ भी कोई मदद न मिली|
इनके दोस्त सत्यप्रकाश ने इनके लिए चपरासी की नौकरी तक की और इन्हें संघर्ष जारी रखने को कहा| ऐसा ही हुआ और एक दिन रॉबिन मुखर्जी, जो कि एक मशहूर म्यूज़िक डायरेक्टर थे उनके निर्देशन में, “सखी रॉबिन”, फ़िल्म में, इनके लिखे 6 गाने चुन लिए गए और 25रुपये/गाना, 150 रुपये मिले| ये 1962 की बात थी| इसके बाद भी इन्हें B-ग्रेड फ़िल्मों में काम मिलता रहा| चूंकि इनके पास, न गुलज़ार की तरह, मुंबई में बसे अमीर बंगाली फ़िल्मकारों का साया था, न ये मजरूह जैसा शायराना मिज़ाज, तो इनको वक़्त तो लगना था|
“1971 में आई हृषिकेश मुखर्जी की फ़िल्म, “आनंद” में वैसे तो सारे गाने, बंगालियों के चहेते, गुलज़ार साहब ने लिख दिए थे, बस दो गानों की जगह थी. वहां योगेश को मौक़ा मिला और उनके लिखे गीत, “कहीं दूर जब दिन ढल जाए” और “ज़िंदगी कैसी है पहेली”, गुलज़ार साहब के गीतों पर भारी पड़ गए.”
ये गीत सीधे और सच्चे से थे| न तो इनमें उर्दू शायरी की ज़बरदस्त शब्द प्रदर्शनी थी, न गुलज़ार के अजीब से बोल जो कई बार समझ में न आने के कारण अच्छे मान लिए गए| ये दिल की बात थी और सीधी वहां पहुंच रही थी|
इसके बाद इन्हें ख़ूब मौक़े मिले| “मिली”, “छोटी सी बात”, “बातों बातों में”, “रजनीगंधा” और भी बहुत सी फ़िल्मों में इनके गीतों ने धूम मचाई| “बड़ी सूनी सूनी है”, “रिमझिम गिरे सावन”, “न जाने क्यों होता है ये ज़िंदगी के साथ”, “नबोले तुम, न मैने कुछ कहा”, ये गाने आज भी अपने सहल अंदाज़ से ज़िंदगी में रंग भर देते हैं|
फ़िल्मी दुनिया के अलग दस्तूर हैं, यहाँ शोहरत के लिए साज़िशें तक की जाती हैं| योगेश को न तो शायर कहा गया न उन्होंने सफ़ेद लिबास के ज़रिए ये साबित करना चाहा, नाम भी सीधा सा, “योगेश” ही रहने दिया तो दुनिया, बेहतरीन नग़्मों के पीछे के चेहरे को शायद भूल सी गई| इन्हें याद करना, करवाना, करते रहना, बहुत ज़रूरी है, ताकि उदास होकर, ये शायर ये न कह बैठे,
“तुम्हे याद हो कि न याद हो”
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.