डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
महफ़िल में ज़िक़्र हो न हो, न हो चाहे हिस्सा, किसी मरासिम का, उनका नाम, बात जब भी छिड़ती है रोशनी की, शमा की तरह याद आते हैं कुछ शख़्स| जब मुख़ातिब होते हैं ये हाज़िरीन-ए-महफ़िल से, सब परवाने, इनके पास ही ठहरते हैं और जब ग़ैब के सुपुर्द हो जाते हैं ये, तो नई शमा जलाई जाती है एक आह के साथ कि “तुम रौशन तो हो, पर उसकी तरह, पुरसुकून नहीं|” भारतीय सिनेमा में गीतकार, अदीब, शायर या जो कह लें, शैलेन्द्र ही वो शमा थे| वो गुल, जो बहुत जल्दी हसीन हुआ और जवान ही चल बसा|
शैलेन्द्र का जन्म 1923 में रावलपिंडी, पाकिस्तान में हुआ था, हालांकि इनके पुरखे, आरा, बिहार के थे| इनके पिता सेना में थे, तो तबादलों की वजह से वे कई जगहों पर रहते आ रहे थे| रावलपिंडी में रहने के दौरान बहुत मुसीबतें, मतलब ग़रीबी और उससे होने वाली तमाम दिक़्कतें शैलेन्द्र के पिता को होने लगीं| परेशान हो कर, वे मथुरा आ गए| यहाँ भी कुछ बहुत बेहतर न हुआ और शैलेन्द्र की इकलौती बहन चल बसीं| शैलेन्द्र जवान हो रहे थे, सो बहुत असर हुआ उनपर| रेलवे की नौकरी के सिलसिले में वे, 1947 में, मुंबई पहुंचे और यहीं से शुरू हुआ उनका सफ़र, शोहरत की ओर|
अंदर भरे मवाद को, वे कविता के रूप में निकाला करते थे और मुशायरों में भी जाया करते थे| यहीं शैलेन्द्र, IPTA से भी जुड़े|
बहुत कम लोगों को पता है कि ” ज़ोर, ज़ुल्म के टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है”, और ऐसे कई स्लोगन, शैलेन्द्र की ही स्याही से निकले थे|
किसी मुशायरे में, शैलेन्द्र की कविता, ” जलता है पंजाब”, सुनकर, राज कपूर ने उन्हें 500 रुपये देने की कोशिश की और कहा कि वे उनकी 1948 में आने वाली फ़िल्म, “आग” के लिए गाना लिखें| शैलेन्द्र ने ये कह कर मना कर दिया कि, उनके शब्द बिक नहीं सकते| राज कपूर ने उनके स्वाभिमान का सम्मान किया और कहा कि जब भी शैलेन्द्र चाहें, उनसे मिलें, उनकी फ़िल्मों के लिए लिखे|
बहुत जल्दी ही, ये मौक़ा आया, शैलेन्द्र को ज़रूरत आ पड़ी और उन्होंने राज कपूर की बात मानते हुए, 1949 में आई फ़िल्म “बरसात” के लिए दो गीत लिखें, “पतली कमर है” और “बरसात में”| ये दोनों गाने ख़ूब मशहूर हुए|
1951, शैलेन्द्र के लिए एक यादगार साल बन जाने वाला था| बात ये थी कि ख्वाजा अहमद अब्बास, फ़िल्म, “आवारा” की कहानी, शैलेन्द्र को सुना रहे थे और बार बार कह रहे थे कि “नायक आवारा है, उसके हिसाब से ही गाना लिखना होगा, समझे!” शैलेन्द्र, बिना कुछ बोले लगातार सिगरेट पीए जा रहे थे| अब्बास साहब ने खीझ कर राज कपूर से कहा कि, ” ये किस बेवकूफ़ को बिठा दिया है, कुछ बोलता ही नहीं|” ये बात स्वाभिमानी शैलेन्द्र को बहुत बुरी लगी| इससे पहले कि राज कपूर कुछ कहते, शैलेन्द्र ने उठते हुए कहा, ” या गर्दिश में हूं, आसमान का तारा हूं” और उसके बाद जो हुआ वो इतिहास है| ये गीत, अब तक के सबसे मशहूर हिन्दी फ़िल्मी गानों में से है| न सिर्फ़ भारत में, विदेशों में भी इस गाने की धूम मच गई|
अंग्रेज़ी फ़िल्म, “डेडपूल” में “मेरा जूता है जापानी” का इस्तेमाल भी हुआ| ये महज शुरुआत थी| इसके बाद तो हर बार शैलेन्द्र की कलम से ऐसे गीत निकले कि दुनिया हैरान रह गई:
- “सजन रे झूठ मत बोलो”
- “सुहाना सफ़र और ये मौसम हसीं”
- “सजनवा बैरी हो गए हमार”
- “रमैय्या वस्तावैय्या”
- “मेरा जूता है जापानी”
- “आज फिर जीने की तमन्ना”
- “याद न जाए, बीते दिनों की”
- “किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार”
और फ़ेहरिस्त इतनी लम्बी है कि वक़्त बहुत बीत जाएगा गिनने में|
बात ये है कि किसी गीतकार का एक या दो गीत मशहूर हो जाए तो उसकी शोहरत आसमान छूने लगती है और उसका व्यवहार भी बहुत बदल जाता है| शैलेन्द्र ने हर बार अच्छा लिखा, हर एक गीत अच्छा लिखा और ज़मीन से जुड़े रहे|
उनके दौर में बहुत से शायर, फ़िल्मों में लिखने लगे| उनको पढ़ते हुए, आगे भी इन्दीवर, आनन्द बख़्शी और गुलज़ार जैसे लोग भी उभरे लेकिन किसी में शैलेन्द्र जैसी सादगी और असर न था| साहिर के गीतों में उर्दू शायरी की बारीक़ी थी, जो सब को समझ नहीं आती थी| गुलज़ार ने अत्यधिक “objective correlative” का प्रयोग कर के गीतों में भावनाओं की जगह चीज़ों को भर दिया और उनका “मानवीकरण” (personification) करते रहे और यही लगातार किया, मसलन “उम्र से लंबी सड़कें”, “तुम जो कह दो तो चांद डूबेगा नहीं”, “आंखें भी कमाल करती हैं, पर्सनल से सवाल करती हैं”, और भी कई गीत ऐसे हैं| ज़्यादातर तो ख़ूब पसंद किए गए और शानदार हैं भी| लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो कवि आश्वस्त हो कर लिखता है कि, लोग तो पसंद कर ही लेंगे|
“गुलज़ार से सभी गीतकारों की तुलना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि ये बात जानना बहुत ज़रूरी है कि बेशक़ वे एक बेहतरीन शायर हैं, लेकिन ये मान लेना कि उतना बेहतरीन कभी हुआ ही नहीं या अब नहीं हो पाएगा, ये ग़लत है. हमारी पीढ़ी ने जो एक अंतिम माप बना दिया है उनको, ये ठीक नहीं. गुलज़ार ने ख़ुद भी कई बार शैलेन्द्र को ही सबसे बेहतरीन बताया है.”
1966 में, बिहार की मिट्टी ने शैलेन्द्र को आवाज़ दी, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे महान साहित्यकार ने उसी मिट्टी पर उनके लिए लिखा और “तीसरी क़सम”, फ़िल्म बनी| इसके निर्माता शैलेन्द्र ही थे| फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार तो मिला लेकिन धन बहुत नहीं कमा पाई| शैलेन्द्र टूट गए| उस साल, वे “मेरा नाम जोकर” के लिए गीत लिख रहे थे, लेकिन पूरा करने के पहले ही, वे गुज़र गए| उनके बेटे शैली शैलेन्द्र ने कुछ छूटे हुए हिस्से को पूरा किया|
आज पूरे फ़िल्म जगत को, उनकी माटी, बिहार को और देश को, इस कलम के सिपाही को ये बताना होगा कि हम उसे आज भी चाहते हैं, इज़्ज़त करते हैं, याद करते हैं, क्योंकि अपने जानिब से तो कभी न टूटने वाला वादा किया, ये कह कर गया वो:
“भूलोगे तुम, भूलेंगे वो
पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा”
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)