डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
छोटे शहर बहुत प्यारे होते हैं, उनमें रहना चाहिए, लेकिन एक वक़्त आने पर, उन्हें छोड़ भी देना चाहिए| छोटे शहर, इंसान को छोटी बातों का मतलब समझाते हैं और हर छोटी चीज़ के लिए, शुक्रगुज़ार होना भी सिखाते हैं| छोड़ इसलिए देना चाहिए इन शहरों को, क्योंकि, ये अपनी सरहदों में बांध लेते हैं, एक शख़्स को, और कई बार उनके सपनों को भी| ऐसे ही मथुरा में जब सपनों की लड़ाई, सरहदों से होने लगी, तो वीरेन्द्र सक्सेना, दिल्ली आ गए|
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वीरेन्द्र का जन्म 1960 में, मथुरा में हुआ था और वहीं, इनके पिता की नौकरी थी| मथुरा में, वीरेन्द्र, बहुत मशहूर थे, नौजवानों में, क्योंकि, वे बहुत अच्छा गाते थे, चित्रकारी करते थे और एक्टिंग भी करते थे| ये बड़े बेबाक़ से थे, सो इनके दोस्त पूरे शहर में थे|
“एक दौर आया जब इन्हें मथुरा में, अपने सपनों के लिए, जगह कम पड़ने लगी. इन्होंने, मथुरा के ही, एक राजा महेन्द्र प्रताप के सेक्रेटरी के तौर पर नौकरी कर ली और दिल्ली चले आए, उनके साथ. वीरेन्द्र की लिखावट बड़ी अच्छी थी, इसलिए वे राजा के ख़त भी लिखा करते थे.”
ज़िंदगी गुज़र ही रही थी, कि इनकी मुलाक़ात, अनिल चौधरी से हुई| अनिल ने कहा कि असग़र वजाहत का एक नाटक, “इन्ना की आवाज़”, IIC में होने वाला है, वीरेन्द्र चाहें, तो उसमें काम कर लें| वीरेन्द्र ने ऐसा ही किया और इतना अच्छा किया कि अगले दिन कविता नागपाल जैसी पत्रकार ने अपने रिपोर्ट में, नाम के साथ, वीरेन्द्र का ज़िक़्र किया| ये बहुत बड़ी हौसलाअफ़ज़ाई थी इनके लिए और राजा साहब को इन्होंने अलविदा कह दिया|
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फिर इन्होंने, एम०के०रैना के साथ मिल कर, प्रयोग ग्रुप के अंतर्गत ख़ूब नाटक किए और 1979 में NSD में दाख़िल हुए| इसके बाद 1985 में आई, “मैसी साहब” में ये नज़र आए| लेकिन इनको शोहरत मिली, 1988 में आई, “तमस” से| इसके बाद तो कई किरदारों के रूप में ये दिखे| “आशिक़ी”, “दामिनी”, “कभी हां, कभी ना” से लेकर “भेजा फ़्राय 2”, “कमांडो 3” और इसी साल आई, “बाग़ी 3” तक में ये दिखे हैं|
टीवी पर भी इनका काम बहुत सराहा गया है| “भारत एक खोज”, “व्योमकेश बख़्शी”, “वागले की दुनिया” वाले टीवी के सुनहरे दौर से लेकर, लगभग मूक और सजे धजे किरदारों वाले सास बहु सीरियल्स के गिरे हुए दौर तक, इन्होंने काम किया है| “जस्सी जैसी कोई नहीं”, जिसे टीवी का अंतिम सीरियल कहा जा सकता है, एक निश्चित कहानी के साथ, उसमें भी वीरेन्द्र ने काम किया है| इन्होंने “White Rainbow”, “Cotton Mary”, “City of Joy” और “In Custody” जैसी बेहतरीन अंग्रेज़ी फ़िल्मों में भी काम किया है|
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वीरेन्द्र सक्सेना बताते हैं कि, इन्होंने हमेशा, अपनी शर्तों पर काम किया है और जब भी उन्हें सही लगा, छोटे किरदार भी निभाए और जब समझौता करने की बात आई, बड़े रोल भी ठुकरा दिए| शायद इसलिए ये कभी भी झूठी रोशनियों वाली पार्टियों या जलसों में नज़र नहीं आते| इनमें और इनके जैसे कई दिग्गज कलाकारों में अभिनय का अभूतपूर्व ज्ञान है, फ़िल्म फ़ेस्टिवल या अन्य आयोजनों में इन्हें आमंत्रित कर के नए अदाकारों को इनसे सीखना चाहिए, तभी वे समझ पाएंगे कि दोहरे अर्थ वाले चुटकुले के प्रदर्शन को अभिनय नहीं कहते और मोटे से पतले हो जाने को संघर्ष भी नहीं माना जाता|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)