“डॉ.अम्बेडकर का नवबौद्ध आन्दोलन” -प्रो.रजनीश शुक्ल

आनंद आर.द्विवेदी |Navpravah Desk

प्रोफेसर रजनीश शुक्ल, ने बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के जीवन दर्शन पर व्याख्यान देते हुए उनके धर्म दर्शन, मानवीय मूल्यों, व समानता आदि की विस्तृत व्याख्या की है।

व्याख्यान में प्रो. शुक्ल कहते हैं कि, “बाबा साहब के बारे में चर्चा करना बाबा साहब की कठिनाइयों की चर्चा करना है। बाबा साहब के जीवन में आई तमाम प्रकार की अपेक्षित-अनपेक्षित बाधाओं की चर्चा करना है। इन तमाम बाधाओं के बीच आग में तप करके अपने उदय का और अपने समस्त समुदाय के उदय का और समुदाय के उदय के माध्यम से सम्पूर्ण राष्ट्र के उदय का रास्ता तलाशने वाले व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं।

उस बालक को जिसे चाहते हुए भी मैट्रिक में बतौर विषय संस्कृत विषय का चयन नहीं करने दिया गया। उस कालखण्ड के अध्यापकों ने एक अछूत जाति का होने के नाते उसे संस्कृत नहीं पढ़ने दिया। वहीं स्वामी विवेकानंद जिन्होंने मद्रास में 1891 में कहा था कि दलितों को संस्कृत भाषा पढ़नी होगी जिससे उन्हें सम्मान व गौरव प्राप्त होगा व उनको अपने स्वत्व का बोध होगा। बाबा साहब के मन में भी ऐसी कोई बात रही होगी कि संस्कृत पढ़ने से समाज मे सम्मान की प्राप्ति होगी व हिन्दू धर्म के सत्य से परिचय होगा तथा सत्य से परिचय होने के नाते परिष्कार होगा किंतु यह उनको प्राप्त नहीं हुआ।

हम 1948-49 की बात करें जब हिन्दू कोड बिल की निर्मिति के समय संविधान सभा में संस्कृत के विद्वानों की एक बड़ी संख्या थी, उनका हिन्दू धर्मशास्त्रों के आधार पर प्रतिउत्तर देते हुए बाबा साहब के व्यक्तित्व में यह दिखता है कि जहाँ-जहाँ बाधा पहुंचाई गई बाबा साहब ने वह जीता व जिससे भी रोका गया वह सब अर्जित किया। एक बार मे पढ़ाई पूरी नहीं कर पाए तो इंग्लैंड से वापस आना पड़ा, फिर संघर्ष किया, नौकरी की, असिस्टेंट प्रोफेसर बने, वापस गए और फिर पढ़ाई की। जब हम ज्ञान के प्रति लालसा से भरे ऐसे व्यक्ति की ज्ञान के प्रति निष्ठा का विचार करते हैं तब हम घर के जेवर बेंचकर, कर्ज लेकर ज्ञानार्जन करने वाले व्यक्तित्व की चर्चा कर रहे होते हैं।

बाबा साहब केवल हिन्दू जाति व धर्म व्यवस्था के अध्येता, आलोचक और प्रतिसंस्कर्ता नहीं हैं अपितु सम्पूर्ण भारतीय दृष्टिकोण को समझने वाले अद्भुत व्यक्तित्व हैं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के अपने व्याख्यान में उन्होंने पहली बार इस देश में दो प्रकार की जातियां “आर्य और द्रविड़” के होने की संभावना का नृतत्व शास्त्रीय आधार पर खंडन प्रस्तुत किया। यह वो कालखण्ड है जब तिलक जैसा महान विद्वान भी आर्यों का मूलदेश अरकांटिका तलाश रहा था, उस समय इस देश में आर्य व द्रविड़ दो जातियाँ नहीं हैं आर्य व दस्यु जैसे कोई विभाजन नहीं हैं, Racial Discrimination नहीं है इसको शास्त्रीय आधार पर सिद्ध करने वाले व्यक्तित्व का नाम बाबा साहब भीमराव अंबेडकर है जिन्होंने कहा आर्य दुनिया में कहीं और से नहीं आये, वो भारत के मूल निवासी हैं।

1945 के नागपुर के एक व्याख्यान में बाबा साहब ने कहा था कि हमें कम्युनिस्टों से सावधान रहना पड़ेगा क्योंकि उनकी हमारे लोगों में समानता की सम्भावना व्यक्त करने वाली बातें झूठी हैं। कम्युनिज़्म में स्वतंत्रता के लिए जगह नहीं है इसलिए उनकी साम्यवाद और समता कृत्रिम हैं और स्वाभाविक नहीं हैं।

इन सबके बीच बाबा साहब का मानना था कि हमें धर्म व्यवस्था तो वही बनानी है जो लौकिक जीवन मूल्यों, नैतिकता, स्वतंत्रता व समानता के लिए जगह बना सके। बाबा साहब का यह वैचारिक दृष्टिकोण हमें संविधान की प्रस्तावना में भी देखने को मिलता है। बाबा साहब इस कालखण्ड में समानता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के महानायक हैं। उनकी यह विचारधारा फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित या राजतंत्र, कुलीनतंत्र के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं है, अपितु यह राजतंत्र व कुलीनतंत्र के रूपांतरण, कायांतरण व समाज के निचले वर्ग को गरिमायुक्त, अस्मितायुक्त बनाना, उसकी पहचान व समाज में स्वीकृति दिलाना का दृष्टिकोण है लेकिन यह सब हिंसा के माध्यम से नहीं हो सकता।”

आगे प्रो. शुक्ल बाबा साहब का बौद्ध मत स्वीकार करने के बारे में चर्चा करते हुए बताते हैं कि, ” उस कालखण्ड में जब दुनिया में क्रिश्चियनिटी की बहुलता थी, तब बाबा साहब को भी प्रलोभन दिया गया, वो चाहते तो धर्मांतरण स्वीकार कर सकते थे किंतु बाबा साहब ने दुनिया के अन्य धर्मों का जो अध्ययन करना प्रारंभ किया था उससे उन्हें जो अनुभव प्राप्त हुआ था वह महत्वपूर्ण है। उन्होंने देखा कि केरल में जहां ईसाइयों की बहुलता थी वहाँ भी नंबूदरी, नाडार, नायर क्रिश्चचियन आदि का भेद आज भी जीवित है। हैदराबाद के निजाम ने इस्लाम ग्रहण करने के लिए बाबा साहब को करोड़ों का प्रलोभन देने का भी प्रयास किया। लोगों के मन में यह था कि इस्लाम के माध्यम से बाबा साहब के विचारों की प्राप्ति आसानी से सम्भव है, लेकिन इस्लाम में भी अशरफ़, अजलाफ़, अरजल जैसी भिन्न वर्ण व्यवस्थायें हैं। वहीं सिख सम्प्रदाय में भी अनेक प्रकार की जातिगत भिन्नताएं थीं। पारसी समाज में भी बाबा साहब को अत्यंत कटु अनुभव था। सयाजीराव गायकवाड़ के यहाँ बड़े अधिकार क्षेत्र में कार्यरत बाबा साहब को एक पारसी के घर में अपनी पहचान छुपाकर किराए का मकान लिया किंतु पारसी समाज को जब पता चला तो उन्होंने बाबा साहब के साथ बेहद कठोर व्यवहार किया। हिन्दू समाज के दलितों के लिए पारसी समाज में भी कोई स्थान नहीं था। बाबा साहब को भारतीय परंपरा में पला हुआ धर्म चाहिए था। बाबा साहब का मानना था कि जब तक ईश्वर कृत जगत की अवधारणा नहीं होगी, मनुष्य ईश्वर द्वारा निर्मित है और भाग्य के साथ निर्मित है जिसका फल खाने के लिए मनुष्य बाध्य है तब तक नैतिकता सम्भव नहीं है। इस प्रकार दुनिया के किसी अन्य धर्म में अछूतों, दलितों को न्याय मिलेगा इसपर बाबा साहब को संशय था। बाबा साहब लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक थे। उनके अनुसार बौद्ध धर्म में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का विशेष महत्त्व है जहाँ विचारों को सर्वसम्मति से ही स्वीकार करने की परंपरा है। स्वयं बुद्ध कहते हैं कि केवल बुद्ध का कथन है इसलिए नहीं, अपितु युक्ति के आधार पर ही विचारों की स्वीकृति की जानी चाहिए।

बाबा साहब ने हाशिये पर स्थापित वंचित वर्ग के लिए धम्म का रास्ता स्वीकार किया था जिसपर किसी का भी आधिपत्य नहीं था। भारतभूमि स्वयं बुद्ध के उस महान धम्म से अपरिचित हो गई थी इसलिए इसमें पुरोहितवाद, कर्मकांड नहीं थी जिस कारण इसमें जड़ता नहीं थी व परिष्कार की संभावनाएं थीं। बाबा साहब को ऐसी ही धार्मिक संरचना व दार्शनिक दृष्टि स्वीकार थी जिसमें लौकिक जीवन के कल्याण के साथ मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति के भी रास्ते बन सकें जिसमें मानवीय मूल्यों का समावेश हो। बाबा साहब धम्म दृष्टि राष्ट्र विद्रोही न हो इसकी चिंता को भी व्यक्त करते थे। इसलिए उन्होंने हिन्दू कोड बिल में “हिन्दू” शब्द की व्याख्या में “सनातनी, जैन, बौद्ध, सिख आदि” सबको सम्मिलित किया जिनका उद्भव भारत भूमि में हुआ था। उनकी हिन्दू की अवधारणा उपासना व जाति पर आधारित नहीं है बल्कि यह ऐसी अवधारणा है जिसमें भारत भूमि के मूल निवासी की ही समाविष्टि है। बाबा साहब देश की सांस्कृतिक दृष्टि पर अभेद्य विश्वास रखने वाले व्यक्ति थे। या सांस्कृतिक दृष्टि को ही लेकर उन्होंने संविधान सभा में देश के एकीकरण को लेकर चल रही बहस के बीच जब कहा था कि, “इस देश में कलह पैदा करने वाले लोग बहुत हैं, कलह पैदा करने वाले एक दल का नेता मैं भी हूँ।”

“बाबा साहब मानते थे कि यह देश संवाद और चर्चा से एक जन एक राष्ट्र के रूप में ताकतवर बनकर उभरेगा और ऐसे राष्ट्रीय एकीकरण में सांस्कृतिक एकीकरण की दृष्टि का भी समावेश होगा।”

बाबा साहब पाली, प्राकृत और संस्कृत को अत्यंत महत्व देने वाले विधिशास्त्री थे। संविधान सभा में राष्ट्रभाषा व राजभाषा के प्रश्न के दौरान बाबा साहब संस्कृत को यह स्थान दिया जाए ऐसा प्रस्ताव कई दलित सदस्यों के समर्थन से लेकर आये। हिन्दू कोड बिल के दौरान बाबा साहब कहते हैं कि इस बिल में मैं दलितों व स्त्रियों को वह स्थान नहीं दे सकता जो स्थान स्मृतियों में उन्हें प्राप्त है। यह बाबा साहब की लाचारगी का प्रदर्शन नहीं है अपितु जिस दृष्टि से अब तक स्मृतियों को देखा गया उसका प्रश्न है। हालांकि उन्हींने मनुस्मृति को जलाया था लेकिन चंदन की लकड़ी पर जलाया ताकि उसकी सुगंधि बनी रहे। यहाँ सुगंधि से तात्पर्य उन नियमों से है जो विधि व्यवस्था के हित में हैं। नियम ऐसे नहीं होने चाहिए जो राज्य को सर्वोच्च में स्थापित करते हों और व्यक्ति की गरिमा को गिराते हों। इस प्रकार के नियमों को नष्ट हो जाना चाहिए। यह भारत के संविधान में भी सपष्ट रूप से दिखता है।

बाबा साहब अपने युग में नीति, विधि और व्यवस्था के महान निर्माता व धर्म शास्त्री थे। “

(यह आलेख प्रोफेसर रजनीश शुक्ल, कुलपति, महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, के बाबा साहब के जीवन दर्शन पर आधारित व्याख्यान के प्रमुख अंशों की चर्चा है। आचार्य शुक्ल अपने कार्यकाल का एक वर्ष आज पूर्ण कर रहे हैं। मैं बतौर सम्पादक, नवप्रवाह मीडिया नेटवर्क्स प्रा.लि.,उन्हें बधाई संदेश प्रेषित करता हूँ।)

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