डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
“नफ़ाज़ हुआ है हुक्म लम्हात का
मुंतज़िर रहो सहर होने तक”
–विमलेन्दु
लम्हा लम्हा गुज़रते हुए, एक गुज़ारिश करता है कि वाहिद वही है और आगे नहीं होगा, जी लिए जाने की दरख़्वास्त करता है और जो जी लेते हैं शाम होने के पहले, हाज़िरीन-ए-महफ़िल, उन्हीं को शोहरत और वक़ार बख़्शती है| पर्ल पदमज़ी(पदमसी)एक ऐसा नाम है जो किसी किसी को ही पता है, लेकिन ऐसी शक्ल है जिसे कोई नहीं भूला|
1931 में, इनकी पैदाइश, एक इसाई पिता और यहूदी मां के यहां हुई| ये बेहद चंचल थीं और इनके पिता, बहुत ही धार्मिक| पर्ल अपने पिता से बहुत कुछ सीखती थीं| कई धार्मिक कहानियां, उन्हें बचपन से ही याद थीं और अकसर अपनी ज़िंदगी की परेशानियों को, वे इन्हें पढ़कर ही सुलझाने की कोशिश करती थीं|
“इनकी पहली शादी, श्री चौधरी से हुई और इनके दो बच्चे हुए| बेटे का नाम रंजीत चौधरी था और बेटी का रोहिणी चौधरी| दोनों बच्चे छोटे ही थे कि इनका चौधरी साहब से तलाक़ हो गया और उसके कुछ ही दिनों बाद इन्होंने मशहूर नाटककार अलीक़ पदमज़ी से शादी कर ली| इस शादी के कुछ ही सालों बाद इनकी बेटी रोहिणी, जो महज़ 10 साल की थीं, गुज़र गईं| ज़िंदगी बहुत चोट दे रही थी |”
लेकिन अलीक़ एक जाने माने नाटककार थे और उनकी पत्नी होने के साथ साथ एक ख़ुशमिज़ाज अंदाज़ की वजह से, पर्ल को फ़िल्मों में काम मिलने लगा| इनके साथ साथ इनके बेटे रंजीत चौधरी** को भी दर्शकों ने पसंद करना शुरू कर दिया| रंजीत चौधरी वही हैं, जो “खट्टा मीठा”, “बातों बातों में” और “ख़ूबसूरत” जैसी फ़िल्मों में, छोटे भाई के किरदार में, कभी वॉयलिन बजाते, कभी गिटार बजाते, बिखरे बालों वाले कमउम्र लड़के की तरह नज़र आते थे| हाल ही में उनका इंतक़ाल हो गया|
पर्ल ने “खट्टा मीठा”, “बातों बातों में” यादगार किरदार निभाए और भी कुछ छोटे किरदार उन्होंने किए| 1996 में आई “कामसूत्र” और 1998 में आई “सच् अ लाँग जर्नी” जैसी अंग्रेज़ी फ़िल्मों में भी ये छोटे-छोटे किरदार निभाती नज़र आईं| “सच् अ लाँग जर्नी”, रोहिन्टन मिस्त्री के उपन्यास पर आधारित फ़िल्म थी|
पर्ल का ज़्यादातर समय स्कूली बच्चों के लिए, थिएटर वर्कशॉप करते बीतता था| अलीक़ के साथ भी इनकी शादी लम्बी नहीं चली| इन दोनों की बेटी, राएल, मुंबई में अपनी थिएटर कंपनी चलाती हैं|
24 अप्रैल, 2000 को पर्ल, ये दुनिया छोड़ कर हमेशा के लिए चली गईं और इसाई धर्म के रीति रिवाज़ों के हिसाब से बांद्रा के कब्रिस्तान में दफ़ना दिया गया|
एक बात हमेशा ज़हन में आती है कि, पर्दे पर हंसते हुए चेहरों के पीछे की असल ज़िंदगी में कितना ग़ुबार, कितनी बेचैनी और न जाने कितनी ही अनकही कहानियां होती हैं
पर्ल जहां भी हों, ख़ुश हों|
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)