भारतीय संस्कृति का अश्वमेघ यज्ञ

भारतीय संस्कृति का अश्वमेघ यज्ञ
अवनीश पी. एन. शर्मा | Navpravah.com
विश्व की संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग काल खंड में पल्लवित पुष्पित एवं फलित भी हुई है, तो समय के कठिन और अमिट प्रभाव के कारण धूल धूसरित भी हुई है। प्रमाणिक रूप से हमने विश्व के इतिहास में यह देखा है कि यूनान, मिश्र व रोम की सभ्यता और संस्कृति पुरानी और प्रभावशाली होने के बावजूद थी, काल के दुष्चक्र के स्वरूप कुछ ऐसी नेस्तनाबूद हो गयीं कि इनका आज कोई नामोनिशान नहीं है।
यह सब होते हुए… विपरीत परिस्थितियों के इतिहास के बाद भी भारतीय संस्कृति आज भी न सिर्फ वजूद में हैं, बल्कि स्थापित भी। ऐसे में किसी शायर का यह कहना कुछ गलत और अतिशयोक्ति जैसा नहीं लगता :
यूनान, मिश्र रोमा सब मिट गए जहाँ से,
लेकिन अभी है बाकी, नामों निशां हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
गोकि रहा है, दुष्मन, दौरे जहां हमारा।
साफ है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति को मिटाने के लिए बार बार विदेशी हमले होते रहे हैं, लेकिन यह नहीं मिट पाई है, जबकि विश्व की महान सभ्यतायें और संस्कृतियां मिट चुकी है।
भारतीय संस्कृति के विकास में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका है। यहाँ धर्म को विराट अर्थ में लिया गया है। भारतीय संस्कृति में पूर्वजों ने धर्म की व्याख्यायें की। इसी क्रम में उन्होने लिखा :
– यतोऽभ्युदयनिश्रेयस्सिद्धि स धर्मः। 
अर्थात जिससे मानव का अभ्युदय और उसका निःश्रेयस दोनों सिद्ध हो सके वही धर्म है। अभ्युदय का अर्थ सांसारिक उन्नति से है। भौतिक आमोद-प्रमोद, भोजन-पान, निवास एवं परिधान, रहन-सहन के साधन जितने ही ज्यादा हों, सुलभ हों… उतने ही वे उन्नति के प्रतिमान माने गये हैं। जैसे-जैसे मानव घर में रहने लगा, वह सभ्य एवं सुसंस्कृत माना जाने लगा, अन्यथा मानव को असभ्य एवं जंगली ही कहा जाता था। यहां कहने का आशय है कि भवन निवेश मानव सभ्यता एवं संस्कृति के निर्माण में एक प्रमुख साधन है। रहने के लिए झोपङी है या विशाल भवन, यह उसकी आर्थिक उन्नति का परिचायक है।
भारतीय संस्कृति का अश्वमेघ यज्ञ
भारतीय संस्कृति का मूलाधार देव तत्व है। यहाँ कोई भी कार्य बिना देवत्व के प्रारम्भ नहीं किया गया, कोई भी शास्त्र बिना देवत्व के पठनीय नहीं है। इसमें कोई भी कला बिना देवत्व के ग्रहण करने का पात्र नहीं बनाती। जैसे… नृत्य कला में नटराज शिव, संगीत में नाद ब्रह्म, आलेख में जगन्नाथ के पट चित्र तथा वास्तु में वास्तु पुरुष (वास्तु देवता)। यह संस्कृति सर्वत्र देव भावना से बंधी हुई है। कह सकते है कि यही भारतीय स्थापत्य की विशेषता है। हमने कला और विज्ञान को अध्यात्म एवं दर्शन से अलग नहीं रखा। हमारी मान्यता के अनुसार कला का जन्म मनोरंजन से नहीं बल्कि धर्म और दर्शन से हुआ है। जो विज्ञान और कला आध्यात्म से शून्य तथा दर्शन से अनुप्राणित नहीं है वह कला एवं विज्ञान किसी सूखी लकड़ी की तरह की तरह जला देने, त्याग देने योग्य है। शुष्क विज्ञान कभी भी भारतीय संस्कृति में ग्राह्य नहीं रहा।
भारतीय संस्कृति की विशेषता पर जब विचार करते हैं तो यह देखते हैं कि इसकी विशेषता एक रूपता नहीं है, बल्कि इसकी विविधता है। इस विविधता में भी निरालापन स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। भारतीय संस्कृति की विशिष्ट विशेषताओं में : ‘आस्तिक भावना’, ‘समन्वयवादी दृष्टिकोण’, ‘विभिन्नता में एकता’, ‘प्राचीनता’, ‘उदारता की भावना’… मूल में मिलती हैं।
भारतीय संस्कृति में आस्तिकता की भावना प्रबल रूप से है। यहाँ के मनीषियों, मुनियों और महात्माओं ने भूत, वर्तमान और भविष्य को अपनी अपार आस्था और विश्वास के आधार पर हाथ पर रखे हुए आँवले के समान अच्छी तरह से देखा और समझा है।
समन्वय की भावना हमारी भारतीय संस्कृति की अनुपम विशेषता है। समदर्षी होना भारतीयों को बहुत रोचक लगता है। यही कारण है कि हमारे भारत मे विभिन्न धर्म, जाति और दर्शन विचारधारा का खुला प्रवेश है। धर्म निरपेक्षता हमारे संविधान की प्रमुख विशेषता है। विभिन्न धर्मों, जातियों और विचारधाराओं के बावजूद भी भारतीयता का मूल स्वर कभी भी विखंडित नहीं होता है।अर्थात् इसमें से दया, उदारता और समरसता का स्रोत कभी नहीं सूखता है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति की विभिन्नता में इसका ही प्रतिपादन करती है।
भारतीय संस्कृति के इन तमाम यशस्व गान के साथ ही यह भी स्थापित सत्य है कि प्राचीनकाल में विदेशी और आतताइयों द्वारा अगर भारतीय संस्कृति को नष्ट किये जाने के प्रयास होते रहे, तो आज यही खतरा कुछ दूसरी तरह से हमारे सामने है, जो शायद बड़ी चुनौती है। आज यह खतरा स्मृतिभंश के रूप में हमारे बीच है। भारतीय समाज या तो अपनी पुरातन संस्कृति की विशेषताओं को भूलता जा रहा है, या तो एक योजना के तहत उसे भूल जाने पर मजबूर किया जाता रहा है। योजनाबद्ध और संगठित तौर पर ऐसा होने के संकेत इस बात से मिलते हैं कि आजादी के बाद सत्ताओं द्वारा पोषित तथाकथित इतिहासकारों के लेकर सामाजिक, साहित्यिक, कला, विज्ञान, सामाजिक विषयों आदि के क्षेत्र में लगातार नकारात्मक और तथ्यविहीन लेखन किये जाते रहे जिसमें भारतीय पुरातन संस्कृति-सभ्यता को गर्व करने की बजाय… कुरीति, कपोलकल्पित, अवैज्ञानिक आदि कहते हुए शर्म का विषय जैसा चित्रित किये जाने के प्रयास होते रहे। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह रही.. कि यह सब होते हुए सत्ताएं देखती ही नहीं रहीं, बल्कि ऐसे दुष्प्रचारों को स्थापित करने में सहयोगी भी बनी रहीं। 
लेकिन कहते हैं न, समय एक सा नहीं रहता। भारतीय समाज के राष्ट्रहितैषी मनीषियों और चिंतकों ने, भारतीय संस्कृति और दर्शन के ज्ञान-विज्ञान-कला-धर्म की पुरातन वैदिक परम्परा का अनुसरण करते हुये, नकारात्मकता के साथ प्रचारित और शर्म के रूप में स्थापित करने के इन प्रयासों के सामने… संवाद-विमर्श के एक बड़े और सार्थक आयोजन का निर्णय लिया और उसके लिये पुरातन की गौरवशाली स्मृति से सनातन धर्म के प्रथम तीर्थस्थल, देव भूमि नैमिषारण्य चुनाव किया।
भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण और उसे स्मृतिभंश के अभिशाप से बचाने के लिये नैमिषारण्य में बीती 7 व 8 दिसम्बर 2017 को हुआ ‘नैमिषेय शँखनाथ’ केवल किसी कार्यक्रम का दो दिवसीय आयोजन ही नहीं, बल्कि श्री बाबा योगेंद्र, अमीर चंद जी, सोनल मान सिंह जी, वासिफुद्दीन डागर जी, डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी जी, अनूप जलोटा जी, आदिनाथ मंगेशकर जी (लता मंगेशकर जी के भतीजे), मालिनी अवस्थी जी, वासुदेव कामत जी, जनार्दन गोस्वामी जी, वामन केंद्रे जी, शेखर सेन जी, सचिदानंद जोशी जी, कपिल तिवारी जी, मनोज श्रीवास्तव जी सहित ऐसे तमाम ज्ञानी पुरुषों का भारत राष्ट्र और भारतीय सभ्यता-संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्व का व्रत है… जिसे विद्वतजनों-विचारकों ने एक सतत और दीर्घकालिक सांस्कृतिक यज्ञ के रूप में लिया है।
‘संस्कृति नैमिषेय’… उस भारतीय सभ्यता-संस्कृति-दर्शन के अश्वमेध यज्ञ का प्रारंभ है जिसका अंतिम और एक मात्र उद्देश्य हमें हमारी संस्कृति के प्रति गर्व के भाव में लाना है। इसमें सहभागिता… एक राष्ट्र और संस्कृति के प्रति हमारे नागरिक दायित्वों की पूर्ति होगी जिसकी जिम्मेदारी हम सभी की होनी चाहिए।

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