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इक्कीसवीं सदी की हिंदी कहानी का सरोकार वैविध्यपूर्ण है। भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व-बाज़ार के श्यामल पक्ष का लेखा-जोखा इन कहानियों में प्रस्तुत हुआ है। साथ ही पाठकों में विश्वग्राम की संवेदना जगाती दर्ज़नों कहानियां अपने आप में महत्त्वपूर्ण हैं। ये सांस्कृतिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और सामाजिक दायित्वों के प्रति पूर्णतः सजग और सतर्क हैं। इनमें समाज की धड़कन को महसूस किया जा सकता है। सामाजिक विषमताओं की पड़ताल करती इक्कीसवीं सदी की कहानी हिंदी कहानी के एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव को पार कर रही है, पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ।
अत्याधुनिक तकनीकी और प्रगतिशील विचारों से लैस समाज जब साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने लगता है, तब इक्कीसवीं सदी की कहानी सभ्य और सुसंस्कृत कहे जाने वाले समाज को कटघरे में खड़ा करती है। आज की कहानी उन सूक्ष्म तन्तुओं को सरेआम करने में सक्षम है, जो धर्म को साम्प्रदायिकता से जोड़ते हैं। इस सन्दर्भ में वैचारिक खेमा भी हमें निराश करता है, क्योंकि कुछ तथाकथित विचारधारा के समर्थक धर्म को सम्प्रदाय विशेष के चश्में से देखते हैं, जबकि धर्म स्वयं में एक विराट संकल्पना है। धर्म को सम्प्रदाय से जोड़ना एक प्रकार का मानसिक दिवालियापन है। वामपंथ का जिक्र करते हुए प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने लिखा है – “हम वामपंथी लोग यह सोचते थे कि धर्म माने सम्प्रदाय। जबकि पाया यह जाता है कि गहरा धार्मिक व्यक्ति उतना साम्प्रदायिक नहीं होता, बल्कि बिल्कुल नहीं होता। साम्प्रदायिक वे होते हैं, जिनमें धार्मिक आस्था नहीं होती।” अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि वैचारिक हदबंदी किसी उर्वर साहित्य का कितना नुकसान कर सकती है।
साथियों ! साम्प्रदायिकता का इतिहास बहुत लम्बा नहीं है, क्योंकि भारतीय संस्कृति तो “सहनाववतु और सहनौभुनक्तु” में विश्वास करती आई है। यहां तो जीवों में भी आत्मरूप देखा गया है। कहने का मतलब समदृष्टि। प्रारम्भ में साम्प्रदायिक दंगों का स्वरूप सीमित था, किन्तु बाद में यह उग्र और भयंकर होता गया। असग़र वज़ाहत ने इस सन्दर्भ में लिखा है -“तब दंगे ऐसे नहीं हुआ करते थे जैसे आजकल होते हैं। दंगों के पीछे दर्शन, रणनीति, कार्यपद्धति और गति में बहुत परिवर्तन आया है। आज से पच्चीस-तीस साल पहले न तो लोगों को ज़िंदा जलाया जाता था और न पूरी की पूरी बस्तियां वीरान की जाती थीं। उस जमाने में प्रधानमंत्रियों, गृहमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों का आशीर्वाद भी दंगाइयों को नहीं मिलता था। यह काम छोटे-मोटे स्थानीय नेता अपना स्थानीय और क्षुद्र किस्म का स्वार्थ पूरा करने के लिए करते थे। व्यापारिक प्रतिद्वन्द्विता, जमीन पर कब्जा करना,चुंगी के चुनाव में हिन्दू या मुस्लिम वोट समेट लेना वगैरा उद्देश्य हुआ करते थे। अब तो दिल्ली दरबार पर कब्जा जमाने का साधन बन गए हैं साम्प्रदायिक दंगे।”
आंकड़े बताते हैं कि इक्कीसवीं सदी में साम्प्रदायिक दंगों में बढ़ोत्तरी हुई है। एक तरफ तो हम अंतरिक्ष में छिपे रहस्यों का पता लगा रहे हैं, दूसरी तरफ मानवता का दुश्मन बने बैठे हैं। मनुष्य के अंदर छिपा जानवर तब अधिक खूंखार और हिंसक हो जाता है, जब उसे दंगों का जंगल मुहैया कराया जाता है। ऐसा ही एक हृदय विदारक दृश्य कमल कुमार की चर्चित कहानी ‘पूर्ण विराम’ में देखने को मिलता है -“दरवाजे के बीचोंबीच माँ और पिता की कटी फ़टी लाशें थीं। उसकी सांस रुक रही थी, आंगन के बीच में उसकी बहन की नंगी देह पड़ी थी। उसके पेट के नीचे का हिस्सा क्षत-विक्षत था। खुली, चौड़ी की गई टांगों से लाल-लाल मांस के लोथड़े लटक रहे थे। फर्श पर बहता हुआ खून काला हो गया था। उसकी खुली छाती पर सैकड़ों ज़ख्म थे, जैसे कई कुत्तों ने एक साथ उसे नोच-नोचकर खाया था। उसने आँखें फिरा ली थीं। वह गिरता-पड़ता अंदर आया था। उसकी पत्नी की नंगी देह बिस्तर पर पड़ी थी। उसकी छातियां कटी हुई थी, मांस के लोथड़े ज़मीन पर पड़े थे। उसकी टांगों के बीच से पेट के बच्चे का आधा सिर बाहर लटका हुआ था। दोनों छोटे बच्चों के कई-कई टुकड़े कमरे में छितरे थे।”
देश का कोई कोना जब इस प्रकार लहू लुहान होता है, तो वहां का जनमानस निराश हो जाता है। उसका विश्वास सभ्य समाज से उठने लगता है। वह एक ऐसी दुनिया की कल्पना करता है, जहां इंसान मज़हबों में न बंटा हो। उनके अपने दुःख-सुख का साथी हो। इक्कीसवीं सदी का कथाकार उनके इसी दर्द को गहराई से महसूस करता है। प्रियंवद ने अपनी कहानी “लाल गोदाम का भूत” में उस वृद्ध के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाई है, जो साम्प्रदायिक वैमनस्य का शिकार है। कहानी का पात्र अगनु सोचता है -“जमीन के ऐसे किस टुकड़े पर रहूँ जहां यह सब न होता हो , …जहां सिर्फ किसी दरख्त, धूप, सपने की जाति और धर्म वाला होने से काम चल जाए। मेरे गांव के पास एक पुराना खंडहर है। वहां कोई नहीं जाता। सब कहते हैं, वहां भूत रहते हैं। बिलकुल इंसानों की तरह नाचते हैं, खाते हैं, बात करते हैं। बस दिखते नहीं। सुना है कि भूत न आदमी होते हैं न औरत। न हिन्दू, न मुसलमान, न ईसाई। मैंने सोचा है कि इंसानों के बीच रहने से अच्छा है कि उनके साथ रहा जाए।”
आज का कथाकार भीड़ के मनोविज्ञान को भलीभांति जानता है। वह उन असामाजिक तत्वों को बेनकाब करता है, जो भीड़ को संगठित, संचालित और विध्वंसक कार्यों के लिए प्रेरित करते हैं। सुशांत सुप्रिय की कहानी “बंटवारा” इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। इक्कीसवीं सदी की कहानियों में यदि एक तरफ साम्प्रदायिक-दंगों के शिकार आम नागरिकों की पीड़ा को शब्दरूप दिया गया, वहीं दूसरी तरफ ऐसे पात्रों की कल्पना की गई है, जो साम्प्रदायिक ताकतों के विरोध में उठ खड़े होते हैं। ‘आँखें कहां हैं’ ‘मिलन’ ‘इंसान की औलाद’ ‘बाड़ के उस पार की हरियाली’ जैसी कहानियां इसी श्रेणी में आती हैं। इन कहानियों के पात्र सामाजिक सौहार्द कायम रखने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा सुशांत सुप्रिय, सावित्री रांका, वेदप्रकाश अमिताभ, रूपसिंह राठौड़, पंकज सुबीर, मुरलीधर वैष्णव, असग़र वज़ाहत आदि कहानीकार साम्प्रदायिकता के मनोविज्ञान को बड़ी बारीकी से पकड़ते हैं। इन्होंने हिंदी कहानी के सरोकारों में साम्प्रदायिकता को केंद्रीय समस्या के रूप में स्थापित किया है।
इक्कीसवीं सदी का कथाकार पूरी ईमानदारी और निर्भीकता के साथ जनसामान्य की पैरवी और राजनेताओं की कुटिलता का विरोध करता है। उसका यकीन है कि राजनीति दंगों की जन्मदात्री है। बस्तियों का सूनापन और मानवता को लाचार करना, उसकी सत्ता के लिए अनिवार्य शर्त है। ऐसी स्थिति में वह अपनी कहानियों में “सर्वधर्म समभाव” को अहमियत देता हुआ सामूहिक समन्वय पर ज़ोर देता है। असग़र वज़ाहत अपनी कहानी “ज़ख़्म” में लिखते हैं -” दंगे पुलिस, पी.ए.सी. और प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो लोग रोक सकते हैं।”
इस प्रकार इक्कीसवीं सदी की कहानियों में “साम्प्रदायिक सन्दर्भ” युगीन समस्या के रूप में मौजूद है। इनमें गहरा चिंतन, तटस्थ दृष्टि और स्वाधीन विवेक देखने को मिलता है। ये कहानियां अपनी व्यापकता, सघनता और अर्थवत्ता में हमें आश्वस्त करती हैं।