जन्मदिन विशेष: युसूफ से दिलीप कुमार बनने तक के सफर के कुछ दिलचस्प किस्से

शिखा पाण्डेय,

दिलीप कुमार, यह नाम हिंदी सिनेमा का वह ध्रुव तारा है, जो रहती दुनिया तक सिनेमा जगत का सबसे चमकदार सितारा बना रहेगा। 11 दिसंबर 1922 को तत्कालीन हिंदुस्तान के पेशावर में जन्मा एक बच्चा, मुहम्मद युसूफ खान, एक दिन ‘दिलीप कुमार’ के नाम से भारतीय सिनेमा का सबसे बुलंद सितारा बन जायेगा, ये उनके के माता पिता ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।

हिंदी सिनेमा में लगभग पांच दशकों तक अपने शानदार अभिनय से दर्शकों के दिलों पर राज करनेवाले दिलीप कुमार को भारतीय फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान, दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। इसके अलावा उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘निशान-ए-इम्तियाज’ से भी सम्मानित किया गया है। वर्ष 2015 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म विभूषण से भी नवाज़ा गया।

दिलीप कुमार का आज 94वां जन्मदिन है, लेकिन इस बार दिलीप साहब अपना जन्मदिन नहीं मना रहे। एक तो उनकी सेहत बहुत नासाज़ है, दूसरे उनके साले, यानी सायरा बानो के भाई का हाल ही में निधन हुआ है।

आइये जानते हैं दिलीप कुमार के विवादों से भरे जीवन के कुछ अति दिलचस्प किस्से:

– वर्ष 1930 में युसूफ (दिलीप) का परिवार मुंबई आकर बस गया। वर्ष 1940 में पिता से मतभेद के कारण युसूफ पुणे आ गए। यहां उनकी मुलाकात एक कैंटीन के मालिक ताज मोहम्मद से हुई। ताज मोहम्मद की मदद से भविष्य के एक उज्जवल सितारे ने अपने रोज़गार की शुरुआत आर्मी क्लब में सैंडविच स्टॉल लगाकर की। कैंटीन कांट्रैक्ट से 5000 की बचत के बाद, वह मुंबई वापस लौट आए।

– वर्ष 1943 में चर्चगेट में इनकी मुलाकात डॉ. मसानी से हुई, जिन्होंने उन्हें बॉम्बे टॉकीज में काम करने की पेशकश की। इसके बाद उनकी मुलाकात बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी से हुई। देविका रानी को युसूफ का अंदाज़ इतना भाया कि युसूफ को उनकी पहली फिल्म मिल गई ‘ज्वार भाटा’ और अपना मशहूर नाम भी, ‘दिलीप कुमार’।

– 1949 में आई फिल्म ‘अंदाज’ की सफलता ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया। इस फिल्म में उन्होंने राज कपूर के साथ काम किया था। उसके बाद ‘दीदार’ (1951) और फिर ‘देवदास’ (1955) जैसी सुपरहिट फिल्में लगातार उनके खाते में जुड़ती गईं। फिल्म ‘देवदास’ में देवदास के किरदार को दिलीप साहब ने इस कदर आत्मसात कर लिया था कि जैसे देवदास का दुःख उनका अपना दुःख हो। दिलीप कुमार को इस किरदार ने दिमागी रूप से इतना जकड़ लिया था कि उनके इलाज के लिए विदेशों से डॉक्टर्स की टीम बुलाई गई और डॉक्टर्स ने उन्हें लगभग 3 साल तक ट्रैजिक रोल्स से दूर रहने की सख्त हिदायत दी।

– वर्ष 1957 में आयी दिलीप साहब की फिल्म तराना उनकी ज़िन्दगी में बेपनाह मुहब्बत लेकर आई लेकिन ऐसी नाकाम मुहब्बत, जो परवान न चढ़ सकी। निर्देशक राम दरयानी की फ़िल्म ‘तराना’ (1957) के लिए दिलीप कुमार को हीरो और मधुबाला को बतौर हीरोइन साइन किया गया। हीरो-हीरोइन का आमना-सामना क्या हुआ कि बस जादू हो गया। 17 साल की मधु ने अपनी ओर से प्यार के इकरार की पहल की और दिलीप साहब ने झट पट स्वीकार भी किया, लेकिन दो दिलों के बीच की दरार साबित हुए मधु के पिता अताउल्ला खान। फ़िल्मी दुनिया के तमाम मर्दों का किरदार उनके लिए शक के दायरे में था। दिलीप कुमार भी इस दायरे से बाहर न थे।

मधुबाला के पिता जुआरी थे और मधु के जीवन में उनके द्वारा कदम कदम पर लगाई गई पाबंदियां दिलीप साहब को कतई गंवारा नहीं थीं। उन्होंने मधुबाला से साफ़ कह दिया था कि शादी के लिए उसे फ़िल्मों में काम करना तो छोड़ना ही होगा लेकिन उसी के साथ ही अपने पिता से सारे रिश्ते तोड़ने होंगे। मधुबाला अपने पिता को न छोड़ सकीं और दिलीप साहब से अलग होने का गम उन्हें आखिरी सांस तक रहा।

इस जोड़ी ने ‘तराना’ के बाद 1952 में ‘संगदिल’ और 1954 में ‘अमर’ में एक साथ लीड रोल निभाए थे। के आसिफ़ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’, जो रिलीज़ भले ही 1960 में हुई, लेकिन उसकी शूटिंग 50 के दशक से ही चलती आ रही थी, दिलीप और मधु के जीवन की सबसे हिट फिल्म साबित हुई। 1956 में फिल्म ‘नया दौर’ के लिए तमाम विवादों के बाद मधुबाला की जगह वैजयंती माला को साइन करना, डायरेक्टर बी आर चोपड़ा को अताउल्ला खान द्वारा कोर्ट में घसीटना और दिलीप साहब द्वारा सच के पक्ष में, अर्थात चोपड़ा के पक्ष में बयान देना मधु और दिलीप को हमेशा हमेशा के लिए अलग कर गया। हालांकि दिलीप कुमार ने मजिस्ट्रेट आरएस पारख की अदालत में सबके सामने यह स्वीकार किया, “हां मैं मधु से प्यार करता हूं और उसे हमेशा प्यार करता रहूंगा।”

इस कथित अंत के बाद भी फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की शूटिंग में दोनों साथ ही साथ काम करते रहे, लेकिन फ़िल्म के सीन शूट कर वे एक-दूसरे से मुंह फेर लेते थे। फिल्म में एक सीन ऐसा भी आया जब सलीम अनारकली को ग़ुस्से में एक थप्पड़ जड़ता है। इस सीन में दिलीप कुमार ने मधुबाला को ऐसा करारा तमाचा मारा था कि सेट पर मौजूद तमाम लोग हिल गए थे। मधुबाला को भी अपने होश संभालने में बड़ा वक़्त लगा।

– दिलीप कुमार ने अभिनेत्री सायरा बानो से वर्ष 1966 में शादी की। विवाह के समय दिलीप कुमार 44 वर्ष और सायरा बानो की 22 वर्ष की थीं। यहां भी पहल सायरा की ही थी, क्योंकि सायरा 8 वर्ष की उम्र से ही दिलीप कुमार की दीवानी थीं।

-दिलीप कुमार कभी पिता नहीं बन पाए। अपने इस दर्द को उन्होंने अपनी ऑटोबायोग्राफी ‘द सबस्टांस एंड द शैडो’ में उकेरा है। बुक में दिलीप कुमार ने कहा है, “सच्चाई यह है कि 1972 में सायरा पहली बार प्रेग्नेंट हुईं। 8 महीने की प्रेग्नेंसी में सायरा को ब्लड प्रेशर की शिकायत हुई। इस दौरान पूर्ण रूप से विकसित हो चुके भ्रूण को बचाने के लिए सर्जरी करना संभव नहीं था और दम घुटने से बच्चे की मौत हो गई।” दिलीप की मानें तो इस घटना के बाद सायरा कभी प्रेग्नेंट नहीं हो सकीं।

– खबरों के अनुसार 30 मई, 1980 को बैंगलुरू में दिलीप ने आसमां नाम की एक पाकिस्तानी महिला से दूसरी शादी भी की थी। 1982 में दिलीप ने उससे छुटकारा तो पा लिया, लेकिन तीन साल तक वो झूठ बोलते रहे कि उनकी कोई दूसरी शादी नहीं हुई है। उस दौरान दिलीप और सायरा के रिश्ते में दूरियां आ गई थीं। ऐसा माना जाता है कि दिलीप साहब के दिल में पिता कहलाने की एक ललक थी, जिसे वे शायद आसमां के जरिये पूरी करना चाहते थे।

दिलीप कुमार और सायरा इन दिनों बुढ़ापे की दहलीज पर हैं। दिलीप कुमार अल्जाइमर बीमारी से पीड़ित हैं और सायरा उनकी एकमात्र सहारा हैं। हर कहीं दोनों एक साथ आते-जाते हैं और एक-दूसरे का सहारा बने हुए हैं।

– वर्ष 1991 में दिलीप साहब को पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। 1997 में जब दिलीप साहब को पाकिस्तान के सर्वोच्च नागरिक सम्मान निशान-ए-इम्तियाज़ से नवाज़ा गया, तब भारत में खलबली मच गई। कई भारतीयों ने इस सम्मान को स्वीकारने का कड़ा विरोध किया, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से विचार विमर्श कर दिलीप कुमार ने वह सम्मान स्वीकार किया।

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