गांधी-दर्शन का वैश्विक सरोकार

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डॉ. जितेन्द्र पाण्डेय । Navpravah.com

 

महात्मा गांधी स्वयं में एक युग थे। ऐसा युग जो अतीत के दरख्त़ से जीवन-रस ग्रहण करता हुआ भविष्य की भयावहता के लिए मधुरिम फल हो। अपने स्वाद और सुगंध में लाज़वाब। बेहतरीन इतना कि देश और काल की सीमा भी न रोक सके। दुनिया का हर कलाकार, विचारक, वैज्ञानिक और चिंतक जिसे पाने के लिए बेचैन हो। जिसकी छवि में विश्वात्मा दिख जाय। ऐसे युगपुरुष बार-बार जन्म नहीं लेते, क्योंकि उनके विचार सनातन और शाश्वत होते हैं। उनके बहिर्दर्शन के अनुयायी कोटि-कोटि जन होते हैं। यही बात सोहनलाल द्विवेदी लिखते हैं – “युग हँसा तुम्हारी हँसी देख, युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख।”

 

गांधी जी ने किसी नये सत्य का उद्घाटन नहीं किया था, बल्कि सदियों से जमीं धूल को साफ-सूफ करके दुनिया के सामने रखा। पूज्य ग्रंथों (उपनिषद्, रामायण, गीता आदि) में कैद ज्ञान को अपने व्यवहार में उतारा था। उन्होंने “आत्मवत् सर्वभूतेषु” को जिया था। उनके लिए ईश्वर का साक्षात्कार ‘प्राणिमात्र का दर्शन’ था। यही कारण है कि वे ‘अहिंसा’ के प्रबल पक्षधर थे। एक बार गांधी और सावरकर का आमना-सामना लंदन के किसी समारोह में हुआ। सावरकर ने अपने वक्तव्य में कहा कि राम ने रावण पर विजय पाने के लिए शक्ति का आराधन किया था। यह जरूरी नहीं है कि स्वाधीनता संग्राम के लिए ‘अहिंसा’ का ही रास्ता अपनाया जाय। महात्मा गांधी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में अहिंसा का पक्ष लेते हुए कहा कि राम शक्ति के साथ-साथ करुणा के भी प्रतीक हैं। सनातन मूल्य के वे संवाहक हैं, अहिंसा तो सनातन परम्परा के मूल में है। इस प्रकार समर्पित और ईमानदार क्रांतिकारियों को उन्होंने उस रास्ते पर चलने से मना किया जो मानवता के हित में न हो।

 

गांधी का किसी से कोई बैर-भाव नहीं था। सबके लिए उनके अंतःकरण से सद्भावना की नदियाँ फूटती थीं। प्रभु ईसा मसीह की तरह वे उन्हें भी क्षमा करने के लिए तैयार थे, जो भारत का अहित सोचते थे। ऐसा विराट व्यक्तित्त्व भला विश्व-मनीषा की नज़र से कैसे बचता ? सबने मुक्त-कंठ से बापू का गुणगान किया। मूर्तिकला, चित्रकला, चिंतन, कविता, राजनीति, विज्ञान, फिल्म आदि से जुड़े शीर्षस्थ लोगों ने गांधी को अपनी-अपनी दृष्टि से जांचा-परखा और अपनी सर्जना में ढाला। इस संत की सादगी, सत्य, संकल्प, साहस, समर्पण, करुणा, विद्रोह, सहनशीलता, अहिंसा, आध्यात्मिकता आदि ने दुनिया की महान विभूतियों को उनकी तरफ आकृष्ट किया। सबने महसूस किया कि ‘गांधी-दर्शन’ ही सच्चे अर्थों में ‘विश्व-दर्शन’ है।

 

भारत की स्वतंत्रता के लिए गांधी ने कभी साधन और साध्य के बीच अंतर नहीं माना। ऐसा करना व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्तर पर दोहरा मापदंड अपनाना था। हिंसा के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति उन्हें कदापि स्वीकार्य न थी। यदि स्वतंत्रता प्राप्ति को वृक्ष मान लिया जाय, तो उसका माध्यम निश्चित रूप से बीज होगा। इनमें असंतुलन आना विषमताओं का कारण बनता है। यही बात महात्मा गांधी भारतीय क्रांतिकारियों को समझाना चाहते थे। इस सूत्र को न समझ पाने के कारण दुनिया के अनगिनत क्रांतिकारियों और विचारकों ने मुंह की खाई। इनमें से एक उदाहरण एम्मा गोल्डमैन का देना जरूरी है। एम्मा का जन्म रूस में उस समय हुआ था, जब वहाँ ज़ार की आतंकवादी गतिविधियाँ चरम पर थीं। उसी समय इस महिला ने अपना देश छोड़कर अमेरिका में बसने का निर्णय लिया। बाद में अमेरिका की किसी नीति में हस्तक्षेप करने के कारण उन्हें दंडित किया गया। १९१९ में अमेरिकी सरकार ने एम्मा को उनके देश रूस भेज दिया। यहाँ आकर वह बहुत खुश थीं। बोल्शेविक क्रांति हो चुकी थी। उनको लगा कि साम्यवादी समाज स्थापित होगा, किन्तु थोड़े ही दिनों में मोह भंग हो गया। स्थितियां असामान्य बनी रहीं, गोल्डमैन ने महसूस किया कि इन सबका कारण मार्क्सवाद चिंतन है, जिसमें साधन और साध्य में विसंगति है। क्रांति और हिंसा की इस समर्थक ने अपनी पुस्तक ‘माइ दिस एल्यूज़नमेंट इन रसा’ में खुले दिल से इस भूल को स्वीकार किया है। एम्मा ने गांधी के नमक सत्याग्रह की वकालत अपनी दूसरी पुस्तक ‘नो ह्वेवर एट होम’ में की है। वहां उसने साधन और साध्य को भारत के लिए समीचीन बताया।

गांधी जी निडर और निर्भीक थे। उन्हें नैतिकता का अमोघ अस्त्र प्राप्त था, किंतु थे निःशस्त्र मसीहा (unarmed prophet) | यह ‘नंगा फकीर’ जब राउंड टेबल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने लंदन पहुंचा तो लार्ड मरे ने तीन पंक्तियों से इनका परिचय कराया था –

‘He is a man whom gun cannot frighten,

To whom money cannot buy

To whom woman cannot seduce.’

गाँधी का विश्व-क्षितिज पर आना एक चमत्कारिक घटना थी। इस बात पर एल्बर्ट आइन्स्टीन ने हैरानी जताते हुए कहा था, “आने वाली पीढ़ी आश्चर्य करेगी, वे विस्मयपूर्वक पूछेंगी, क्या ऐसा कोई हाड़-मांस वाला व्यक्ति कभी इस धरती पर चलता-फिरता भी था ? वे मुश्किल से यह विश्वास करेंगी कि आदमी के ऐसे शरीर में देवता, संत अथवा देवदूत का होना कभी संभव हुआ।” अद्भुत व्यक्तित्त्व था महात्मा का, जिसमें न तो पूरी तरह राम अँट सके और न ही कृष्ण। उनकी वैचारिक ऊष्मा इतनी प्रखर और सुहावनी थी कि स्वतः ही महावीर, बुद्ध, फ्रांसिस, ईसा आदि से जुड़ जाती। एक तरफ अमेरिकी चिन्तक डॉ. जे. एच. होम्स गाँधी की तुलना ईसा से करते थे, तो दूसरी ओर डॉ. रूफ़स जोम्स उन्हें संत फ्रांसिस मानते थे। मार्टिन लूथर ने अपने संघर्षों में वैचारिक साथी के रूप में महात्मा गांधी के नाम की घोषणा की थी। वे अपने मिशन (अश्वेतों के अधिकारों की लड़ाई) के लिए सदैव महात्मा के प्रसाद के अभिलाषी रहे। इस बात को मार्टिन ने एक कविता में इस प्रकार स्वीकारी थी –

“कैसी थी उनकी लड़ाई !

जिसमें विद्वेष-घृणा के लिए

कोई जगह नहीं थी।

हड्डियों के उस ढांचे में

कैसा था वह आत्मबल !

मैं सर्वदा उनके प्रसाद का अभिलाषी रहा

हूँ और रहूंगा |”

 

गांधी के ‘स्वराज’ का स्वरूप विराट था, उसमें मात्र अंग्रेजों की दासता से मुक्ति ही शामिल नहीं थी, बल्कि मुक्ति के बाद का ‘ब्लू प्रिंट’ भी था। वे नहीं चाहते थे कि ‘अंग्रेजी शासन बिना अंग्रेजों के चलता रहे’। परिवर्तन जरूरी था। अतः उन्होंने ‘स्वराज’ के नए आयाम खोले। राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ आर्थिक स्वतंत्रता ( उद्योगों का विकेंद्रीकरण), सांस्कृतिक स्वतंत्रता (इंडिया की जगह ‘हिन्द’ का प्रयोग) और आत्मानुशासन पर बल दिया। फ्रेड डलमायर और रूसो ने तो ‘आत्मानुशासन’ को लोकतंत्र का केंद्रीय तत्त्व माना। बिना इसके इच्छाएँ रक्तबीज की तरह जन्म लेती हैं और राष्ट्र में गृहयुद्ध जैसे हालात बन जाते हैं। कुल मिलाकर इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध में उपजी अनेकानेक समस्यायों का निदान है गांधी के स्वराज में। भारत पर सांस्कृतिक हमले बदस्तूर जारी हैं, अंग्रेजों के बाद यह वीणा अमेरिका ने उठाया है। उनके पोषित बुद्धिजीवी  (एम्बेडेड इंटेलेक्चुअल्स) अमेरिकी वर्चस्व को पूरी दुनिया पर थोपना चाहते हैं। दूसरे देशों में राजनीतिक, सैनिक और आर्थिक हस्तक्षेप को ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बताया जा रहा है। इस वैचारिक परंपरा (पश्चिम का अहंकार और दंभ) के वाहक रूप में सैमुअल हटिंगटन और फ्यूकोयामा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वर्त्तमान में भी सोशल मीडिया पर कुछ पश्चिमी विचारकों के लेख वायरल हो रहे हैं, जिसमें भारत की अस्मिता पर प्रहार किया जा रहा है। इस दुष्प्रचार में हमारे पड़ोसी देशों की सरकारी मीडिया भी शामिल है। ऐसी स्थिति में गाँधी का स्वराज-दर्शन वरेण्य है। अधकचरी जानकारी से लैस ऐसे चिंतकों को माकूल जवाब मिलना चाहिए।

 

हिंसा-प्रतिहिंसा की भंवर में उलझा विश्व हथियारों की खरीद-फरोख्त में विवेकशून्य हो गया है। जलवायु-संकट गहराता जा रहा है, पेरिस-सम्मलेन का संतोषजनक हल नहीं निकला। उत्तर कोरिया की परमाणु धमकी दुनिया की धड़कनों को तेज कर दी है। आतंकवाद की ज़द में समूचा विश्व समाया है, रासायनिक हथियार तबाही मचाने के लिए तैयार हैं। निर्माण की मात्रा कम किंतु ध्वंस के सामान अधिक हैं। आखिर, विश्व-मनीषा इतनी लाचार क्यों है ? इस समय प्रेम, सद्भावना, करुणा, अहिंसा, सत्य, सहयोग और सहानुभूति की सर्वाधिक आवश्यकता महसूस हो रही है | ऐसे में उम्मीद की एकमेव चमकीली किरण गाँधी-दर्शन है। इसे अपनाकर दुनिया को स्वर्ग बनाया जा सकता है। भविष्य की ऐसी ही भयावह स्थिति को भांपकर जापान के संत कवि तोशियो साका ने लिखा है –

“जब तक इस धरती का

एक भी व्यक्ति उदास है दुखी है

गांधी उसकी उदासी, उसके दुःख में

हिस्सा बंटाने के लिए

बराबर आते रहेंगे

वे आवागमन से न कभी मुक्त होंगे

और न होना चाहेंगे।”

 

बाज़ार और शक्ति का पूरी दुनिया पर वर्चस्व है। ऐसी स्थिति में युद्ध की संभावना बढ़ती जा रही है। आवश्यकता है गांधी के विचारों की प्रबल पुनर्वापसी हो। हम इसे अपने व्यवहार में उतारें, जिससे भारत विश्व-मंच पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए। धरती पर अमन-चैन स्थापित करने में ‘आर्यावर्त’ नेतृत्त्व की भूमिका में आए। ध्यान रहे इस बड़ी मुहिम की शुरुआत ‘स्व’ से करनी होगी। संदेश का स्वतः भूमंडलीकरण हो जाएगा। अस्तु |

 

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