लालबहादुर शास्त्री के जीवन का प्रेरणादायक ‘सरल शास्त्र’

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शिखा पाण्डेय |Navpravah.com

” देश की सुरक्षा मात्र सैनिकों की ज़िम्मेदारी नहीं है, सम्पूर्ण राष्ट्र का सशक्त होना आवश्यक है।” सम्पूर्ण भारत को सशक्तिकरण का मूल मंत्र देने वाले, देश को ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देने वाले, अत्यंत साधारण जीवन और अतुलनीय कर्मनिष्ठा से भरे भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की 114वीं जयंती पर उन्हें कोटि-कोटि नमन अर्पित करते हुए आइये जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ प्रेरणादायक बातें –

लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तरप्रदेश के मुगलसराय नामक क्षेत्र में हुआ था। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी माँ अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं और उनका बचपन अपने ननिहाल में बीता। वे भाई बहनों में सबसे छोटे थे, इसलिए घर में सब उन्हें ‘नन्हे’ कहकर बुलाते थे।

उनकी उच्च शिक्षा को ध्यान में रखकर बाद में उन्हें उनके चाचा के यहाँ वाराणसी भेज दिया गया। सर्दी, गर्मी, बरसात, हर मौसम की भीषणता के बावजूद वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे। शास्‍त्री का स्‍कूल गंगा की दूसरी तरफ था। उनके पास नाव से गंगा नदी पार करने के लिए फेरी के पैसे नहीं होते थे। इसलिए वह दिन में दो बार अपनी किताबें सिर पर बांधकर तैरकर नदी पार करते थे और स्कूल जाते थे।

शास्त्री जी जातिवाद के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की और यह उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द ‘श्रीवास्तव’  हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया।

बहुत कम लोगों को इस बात की जानकारी होगी कि शास्त्री जी महज़ 17 साल की उम्र में, ‘असहयोग आंदोलन’ में भागीदारी के चलते पहली बार जेल गए थे, हालांकि महज़ 17 वर्ष का होने के नाते उन्हें बाद में छोड़ दिया गया था।

1927 में जब उनका विवाह ललिता देवी से हुआ, और उनके ससुराल पक्ष ने दहेज के विषय में पूछा, तब दहेज के नाम पर शास्त्री जी ने मात्र एक चरखा एवं खादी का कपड़ा लिया। दहेज़ के सख्त विरोधी शास्त्री जी ने इस प्रकार दहेज लेकर भी देश को स्वदेशी अपनाने का एक संदेश दिया।

1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा की। शास्त्री भी उनके इस अभियान में जी जान से लग गए। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान शास्त्री जी कई बार जेल गए। वे अत्यंत ही अनुशासनप्रिय थे। उनके जेल में रहने के दौरान उनकी बेटी बहुत बीमार थी। उसकी देख रेख के लिए उन्हें 15 दिनों के परोल पर घर भेजा गया। दुर्भाग्यवश उनकी उस बिटिया का देहांत हो गया। शास्त्री जी ने उसका अंतिम संस्कार किया और फिर जेल लौट गए, हालांकि परोल के 15 दिन पूरे भी नहीं हुए थे।

जेल में रहने के दौरान उनके परिवार को 50 रुपये की पेंशन दी जाती थी। उनकी पत्नी ने एक बार उन्हें सूचित किया कि इस माह उन्होंने अपने खर्च में से पूरे 10 रुपये की बचत की है, शास्त्री जी ने तुरंत संबंधित संगठन को पत्र लिखकर कहा कि उनकी पेंशन 10 रुपये कम कर दी जाए व किसी जरूरतमंद को दी जाये क्योंकि उनके परिवार का खर्च 40 रुपये में भी चल सकता है।

शास्त्री जी ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई विभागों का प्रभार संभाला – रेल मंत्री; परिवहन एवं संचार मंत्री; वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री; गृह मंत्री एवं नेहरू जी की बीमारी के दौरान बिना विभाग के मंत्री रहे। उनकी प्रतिष्ठा लगातार बढ़ रही थी। एक रेल दुर्घटना, जिसमें कई लोग मारे गए थे, के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी।

शास्त्री ने युद्ध के दौरान देशवासियों से अपील की थी कि अन्न संकट से उबरने के लिए सभी देशवासी सप्ताह में एक दिन का व्रत रखें। उनकी इस अपील पर देशवासियों ने वाक़ई सप्ताह में एक दिन व्रत रखना शुरू कर दिया था।

बनारस के हरिश्चंद्र इंटर कॉलेज में हाईस्कूल की पढ़ाई के दौरान शास्त्री जी से साइंस प्रैक्टिकल में इस्तेमाल होने वाला एक बीकर टूट गया था। स्कूल के चपरासी देवीलाल ने उनको देख लिया और उन्‍हें जोरदार थप्पड़ मार दिया था। रेल मंत्री बनने के बाद 1954 में एक कार्यक्रम में भाग लेने आए शास्त्री जी जब मंच पर थे, तब देवीलाल उनको देखते ही सकुचा कर बगल में हट गए। शास्त्री जी ने उन्हें पहचान लिया और मंच पर बुलाकर गले लगा लिया।

 

उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान एक बार उनके बेटे को बिना वजह पदोन्नति दिए जाने पर उन्होंने स्वयं उस पदोन्नति के आदेश को ख़ारिज करा दिया था। प्रधानमंत्री रहते हुए भी अपने बेटे के कॉलेज एडमिशन फॉर्म पर उन्होंने अपना पद ‘प्रधानमंत्री’ न बताते हुए, एक ‘सरकारी कर्मचारी’ बताया।

शास्त्री जी स्वतंत्र भारत के ऐसे पहले मंत्री थे जिन्होंने अपने  परिवहन मंत्री रहने के कार्यकाल के दौरान पब्लिक ट्रांसपोर्टेशन में महिला वाहन चालकों व कंडक्टरों की नियुक्ति की थी।

शास्त्री जी ने प्रधानमंत्री रहते हुए 5000 रुपये के लोन पर एक फिएट कार खरीदी थी। दुर्भाग्यवश 11th Jan 1966 को ताशकंद समझौते के दौरान रहस्यमय ढंग से उनकी मृत्यु हो गई। तब तक पंजाब नेशनल बैंक से लिया गया उनका यह लोन चुकता नहीं हो पाया था। उनकी पत्नी ललिता गौरी ने उस लोन को शास्त्री जी की पेंशन से भरे जाने का निर्णय किया और उस कार का पूरा लोन चुकाया गया। शास्त्री जी भारत के ऐसे इकलौते प्रधानमंत्री होंगे, जिनके पास कार लेने तक के पैसे नहीं थे। अपना तन, मन, धन, सम्पूर्ण जीवन अपने देश को समर्पित करने वाले इस इकलौते ‘निर्धन’ प्रधानमंत्री को एक बार पुनः समूचे भारत देश का कोटि कोटि नमन।

 

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