आनन्द रूप द्विवेदी | Navpravah.com
माना जाता है कि, फ़िल्में समाज का आइना होती हैं. सिर्फ़ फ़िल्में ही क्यों, अभिव्यक्ति का कोई भी माध्यम समाज को असलियत का आईना दिखाने का काम ही करता है. लेकिन जब इस आईने में संस्कारों की झीनी चदरिया ओढ़ाई जाने लगे तो समझिये समाज, आइना देखने से वंचित रह गया. जिनके अंदर संस्कार कूट कूटकर भरे हुए हैं, वो महज़ आइना देखने से कुसंस्कारी हो जाएँ तो मानिए कि संस्कारों में कमी रह गई. वैसे केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष व बोर्ड मेम्बरान इस बात का बेहद सलीके से ख्याल रखते थे कि फिल्मों के माध्यम से जनता में कुसंस्कार व्याप्त न होने पायें, जिसके चलते तमाम फिल्मकारों को सेंसर बोर्ड के इस ‘फाइनल लेवल’ को क्रॉस करना पड़ता था.
पहलाज निहलानी फ़िल्मी दुनिया का जाना माना नाम हैं जिनके खाते में दर्जन भर फ़िल्में दर्ज हैं. बतौर फिल्म निर्माता पहलाज की पहली फिल्म थी १९८२ में आई ‘हथकड़ी’ जिसमें शत्रुघ्न सिन्हा, संजीव कुमार जैसे दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया था. उसके बाद आंधी तूफ़ान, इलज़ाम, पाप की दुनिया, मिट्टी और सोना, आग का गोला, फर्स्ट लव लेटर, एक और फौलाद, शोला और शबनम, आँखें, अंदाज़, दिल तेरा दीवाना, भाई भाई, उलझन, तलाश,खुशबू जैसी तमाम फिल्मों का सफलता पूर्वक निर्माण करने वाले पहलाज सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष नियुक्त हुए.
“खेत गए बाबा बाजार गई माँ, अकेले हूँ घर में तू आजा बालमा..” ये गाना पहलाज निहलानी की फिल्म ‘आँखें’ का ही है. गाने में प्रेमिका अपने प्रेमी को घर में अकेले होने व प्रणय के सुनहरे अवसर का लाभ उठाने का निवेदन करती दर्शाई गई है. पहलाज साहब की संसकारों वाली डिक्शनरी में शायद ये जायज़ है.
इसी फिल्म के “..ऐ लाल दुपट्टे वाली जरा नाम तो बता..” जैसे गीत ने मनचलों को एक कायदे का जुमला पकड़ाया. सरेराह लड़कियों ने लाल दुपट्टा पहन कर चलना कम कर दिया था. क्योंकि पहलाज साहब की फिल्म ने देशवासियों और नौजवानों को लाल दुपट्टे के माध्यम से ये सन्देश दे दिया था, कि लाल रंग के दुपट्टे वाली लड़कियों का नाम जान लेना फ़िल्मी संस्कारों के बेहद करीब है. बतौर सेंसर बोर्ड अध्यक्ष पहलाज निहलानी में गजब का परिवर्तन आया. अपनी फिल्मों में भरपूर स्किन शो करवाने के बाद अब पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड में संस्कार श्री के रोल में आ चुके थे.
पहलाज साहब यदि राजकपूर साहब के समकालीन होते तो शायद बेहद उलझन में पड़ जाते. उन्हें मेरा नाम जोकर, सत्यम शिवम सुन्दरम, राम तेरी गंगा मैली, जैसी बोल्ड फिल्मों का सामना करना पड़ता. बात तब पचाने वाली होती जब पहलाज निहलानी खुद की फिल्मों के माध्यम से वही सन्देश देते जिसकी बात वो बतौर सेंसर बोर्ड अध्यक्ष करते रहे. “..नॉर्मल फिल्मों में पोर्नोग्राफी नहीं दिखाई जाएगी” जैसे जुमले देने वाले पहलाज निहलानी ने बतौर निर्माता एक भी धार्मिक या सौ टके टंच संस्कारी फ़िल्म नहीं बनाई। उनकी फिल्मों में भी भरपूर स्किन शो हुआ। लेकिन जब सेंसर बोर्ड की कुर्सी मिली तो पहलाज निहलानी अपनी ही बिरादरी के लिए मुसीबत का पहाड़ बन बैठे।
नशे के कारोबार पर आधारित फिल्म ‘उड़ता पंजाब’ के लिए तो पहलाज निहलानी बहती नदी में बाँध के सामान साबित हुए थे. हाल ही में सेंसर बोर्ड ने नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत “बाबूमोशाय बन्दूकबाज़” फिल्म में कुल 48 कट लगाए. यहाँ तक कि फिल्म निर्माता किरन श्याम श्रॉफ जब सेंसर बोर्ड पहुंची तो परम संस्कारी सेंसर बोर्ड मेम्बरान ने उनपर फब्तियां कसीं. किरन के पैंट शर्ट पहनने पर उन्हें ऐतराज़ हुआ. ऐसा ही चलता रहा तो सेंसर बोर्ड को ऑफिस मैनुअल में बुरका या धोती कुरता अनिवार्य करने की मांग कर देनी चाहिए. कपड़ों से महिलाओं को जज कर लेने वाले ऐसे दिव्यदर्शी महापुरुषों को पदस्थ कर, सेंसर बोर्ड अवश्य ही गौरवान्वित महसूस करता होगा.
खैर, केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के पिछले अध्यक्ष पहलाज निहलानी अब अध्यक्षता की कुर्सी में नहीं बैठेंगे. उनका स्थान मशहूर गीतकार प्रसून जोशी ले रहे हैं. उम्मीद है प्रसून जोशी की कैंची, क्रिएटिविटी के पर कतरने के काम नहीं आएगी.