जटाशंकर पाण्डेय | Navpravah.com
पांच प्रदेशों में हो रहे चुनावों में सबकी नज़र जिस चुनाव पर गड़ी है, वह बेशक उत्तर प्रदेश का है, जिसे हर पार्टी ‘उत्तम प्रदेश’ बनाने का आश्वासन दे रही है। अब यह तो परिणामों की घोषणा पर ही निर्भर करेगा कि उत्तर प्रदेश में 70 साल में शिक्षा का स्तर कितनी उचाई तक पहुँचा है। आने वाला समय ही बताएगा कि ‘तरक्की की सीढ़ियां’ चढ़े उत्तर प्रदेश के लोगों में देश प्रेम की भावना है, जाति प्रेम की या धर्म प्रेम की। आज तक के रिकॉर्ड में इस राज्य में जातिगत और धर्मगत लड़ाई तो बहुत हो चुकी है, लेकिन आज तक कोई सही परिणाम नहीं निकला है। सरकारें चाहे जिस पार्टी की बनी हों, लेकिन जनता अपने चुनाव में ‘फेल’ ही रही है।
सारे न्यूज़ चैनल व अखबार तो वही पुराना राग अलाप रहे हैं कि इतने % हिन्दू, इतने % मुस्लिम, इतने यादव, इतने ठाकुर, इतने ब्राह्मण, इतना मिला के इतना, कुल मिला के इतना, और लीजिये ये रहा सही आंकड़ा। गणित पढ़ाने वाले विद्वान सारा गुणा-गणित कर के समीकरण सामने रख देते हैं। सभी पार्टियों के राजनेता, सलाहकार, कार्यकर्त्ता अपने- अपने क्षेत्र में बड़ा से बड़ा शिविर लगा कर खाना-पीना, चाय-नाश्ते के साथ ट्यूशन-क्लासेस शुरू कर देते हैं और जनता को ‘पास’ होने का आश्वासन भी देते हैं। यह जताकर कि हमारी क्लास में पढ़ने वाला फेल नहीं होगा, हमारे उत्तर ही सही हैं, बाक़ी सबका गलत है।
आज तक सभी राजनितिक दल जनता को यही पहाड़ा पढ़ा कर अपनी गणित हल कर लेते हैं और जनता का सवाल 5 साल के लिए पुनः उलझ जाता है। जनता बार-बार उस सवाल को दोहराती रहती है, परंतु वह हल नहीं हो पाता है। 5 साल बाद पुनः चुनाव आता है, लेकिन पिछले 5 सालों से जनता जिन प्रश्नों के उत्तर तैयार करती रहती है, सभी पार्टियों के ट्यूशन पढ़ाने वाले ट्यूटर जनता को ऐसी शिक्षा देते हैं कि जनता अपने रटे रटाये उत्तर में भी कन्फ्यूज हो जाती है। प्रश्न कुछ और रहता है जनता उत्तर कुछ और लिख देती है। इस प्रकार अगले 5 साल के लिए विपक्षी दल नहीं, बल्कि जनता ही फिर फेल हो जाती है और अगली परीक्षा की तैयारी में लग जाती है। यही कार्यक्रम पिछले 70 सालों से चल रहा है।
पूरे देश की यदि बात करें, तो देश भर में शिक्षा का स्तर तो बढ़ा है, लेकिन ‘शिक्षित’ का स्तर कम बढ़ा है। ‘शिक्षित व्यक्ति’ से तात्पर्य यह है कि उस व्यक्ति में थोड़ा विवेक भी बढ़ा हो, उसकी सोच भी थोड़ी बढ़ी हो। हम राजनेताओं के प्रलोभनों को थोड़ा समझें कि यह एजेंडा तो हर चुनाव में आता है। “मंहगाई बढ़ गई है। हम चावल 10 रु. प्रति किलो और गेहूँ 5 रु. प्रति किलो कर देंगे।” अब आप अपने बुद्धि- विवेक से सोचिये, क्या यह संभव है? जनता अपने आप से पूछे, जनता सोचे कि क्या वाक़ई में ये ऐसा कर देंगे? अगर कर देंगे तो सारे के सारे किसान खाने क्या इनके घर जाएंगे या आत्महत्या करेंगे?
सभी पार्टियों को दूसरे की बुराई करने के लिए कुछ मसाला चाहिए, लेकिन आज कोई पार्टी मंहगाई का नाम नहीं ले रही है। यह मुद्दा लुप्त हो गया है। 200 रु. किलो की दाल 80 रु. हो गई है। 40 रु. किलो आलू 12 या 15 रु. हो गया है, 100 रु. किलो का टमाटर 10 रु. हो गया है। आज इसका ज़िक्र कोई नहीं कर रहा है, लेकिन किसान को पता है क्या हो रहा है। ये सस्ती चीजें शहर वालों को बहुत अच्छी लगतीं हैं, लेकिन ग्रामीण किसान, जो खेती करता है और उसकी आजीविका का एक मात्र सहारा खेती ही है, उसके दिल से पूछिये, 2 रु. किलो टमाटर बिकने पर उसके दिल पर क्या गुजरती है। इसके बारे में कौन सोचेगा? अब किसानों को क्या क्या सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं, यह उनको भी ध्यान रखना चाहिए। अगर सरकार ने उनके लिए कुछ अच्छा किया है, तो आगे उस सरकार का ध्यान रखना चाहिए।
भारत में किसान ही देश की रीढ़ माने जाते हैं, क्योंकि दुनिया भर के तमाम उद्योग कृषि पर ही आधारित हैं और कृषि किसानों पर आधारित है। अब इन नेताओं की नज़र में किसान ही इतने भोले हैं, जिनको बेवकूफ बनाना सबसे आसान है, मजदूर ही इतने भोले हैं, कि उनको मूर्ख बनाया जा सकता है और पॉलिटिशियन इतने चालक हैं कि ये सब घपलेबाज़ी कर सकते हैं क्योंकि यही उनका धंधा है।
सामाजिक लोग शिक्षा से जुड़ते हुए शिक्षितों को साथ ले कर समाज के हर वर्ग का उत्थान हो ऐसा कार्य करें, तभी समाज का व देश का उत्थान होगा। किसानों और मजदूरों के घर में भी कुछ पढ़े लिखे लोग जरूर होगें, जो खुद जागरूक हों, जानकार हों और अपने परिवार व समाज को भी वास्तविकता से अवगत कराएं। समाज और दुनियाँ की सच्चाई को जानते हुए अगर हर वर्ग अपनी भलाई चाहे, तो जाति-धर्म-पार्टी से ऊपर उठ कर मतदान जरूर करे।