डॉ. प्रवीण कुमार अंशुमान | Navpravah Desk
इरफ़ान खान के लिए अभी कल ही एक कविता समर्पित की थी, ‘इरफ़ान, तुम चोट सदा पहुँचाओगे’, जिसमें एक पद इस प्रकार था –
जाकर तुमने इस धरती से
सबको याद दिलाई है
मौत यहीं बस खड़ी हुई
देखो, अब किसकी बारी आई है।
और देखो, तब तक बारी आ गयी। एक और अभिनेता चल पड़ा। क्यू में खड़ें लोगों की संख्या में एक और नम्बर कम हो गया। अंग्रेजी के एक महान लेखक जॉन डन की एक कविता है – For Whom the Bell Tolls, जिसकी अंतिम पंक्ति कहती है – For Whom the bell tolls, It rolls for thee. किसी की भी मृत्यु पर बजने वाली चर्च की घण्टी सदा तुम्हारे लिए बजती है। यह कभी मत सोचना कि वह किसी और के लिए बजती है। वह सदा तुम्हारे, और सिर्फ तुम्हारे लिए ही बजती है।
लेकिन एक आश्चर्यजनक घटना मनुष्य के जीवन में घटती है। लाख समझाये जाने के बावज़ूद कोई भी मनुष्य इस बात का इल्म नहीं कर पाता कि उसे भी एक दिन मरना है; एक दिन मिटना है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए मौत की घंटी सदा दूसरे के लिए बजती है। उसे तो समझ भी नहीं आ सकता कि वह उसके लिए बज भी कैसे सकती है। क्योंकि वह तो अभी मरा नहीं; उसे तो अपनी मृत्यु का कोई अभी अनुभव नहीं। वह उसका भान करे भी तो करे कैसे।
मनुष्य यदि सिर्फ़ हाड़-मांस का शरीर होता, तब तो वह मानता कि हां, चर्च की घण्टी मेरे लिए ही बजती है। मरना तो सत्य है ही। एक ऐसा सत्य जिसे चाह कर भी झुठलाया नहीं जा सकता। तो फिर ऐसा क्यूँ होता है कि मृत्यु के इतने क़रीब और निश्चित होने के बावज़ूद हर कोई कहीं न कहीं इससे अस्पर्शित छूट जाता है। वह स्वयं के बारे में नहीं सोचता कि वह भी एक दिन मर जाएगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हांड-मांस के शरीर में कोई अशरीरी भी मौज़ूद है। इसी तत्व का अवचेतन में एहसास हर मानव को इसके प्रति उदासीन बनाये रखता है। क्योंकि कहीं न कहीं प्रत्येक मनुष्य के भीतर अंतरतम में यह एहसास जिंदा है, कि उसकी कोई मृत्यु नहीं है।
” मौत के तांडव के बीच मनुष्य का स्वयं की मृत्यु के बाबत इतना उदासीन रहना कहीं न कहीं उसी अमृत्वता का आभास है, जो उसमें सदा विद्यमान रहता है। भले ही यह विश्वास अवचेतनरूप में ही उसमें उपस्थित क्यूँ न हो। मगर यह ग़ैरध्यान की स्थिति उसके भीतर इस बात का प्रमाण है कि आत्यंतिक रूप में हर कोई अजर और अमर है। “
मगर मृत्यु का फिर शोक क्यूँ? इसका दुःख क्यूँ मनाएं? असल में दुःख और शोक किसी और के लिए नहीं होता है। किसी की भी मृत्यु की ख़बर अंततः अपनी मृत्यु की ख़बर होती है। मूलतः प्रत्येक व्यक्ति किसी की मृत्यु देख आतंकित होता, भय खाता है। और तदुपरांत दुःख और शोक मनाता है। इसी संदर्भ को लिए कविता में अगला एक पद आता है –
जो याद करेगा तुमको
उसे भी मिट तो जाना है
बस याद स्वयं की आ जाए
सीख यही बस जाना है।
दुःख यह नहीं कि वह चला गया; दुःख यह भी नहीं कि मैं चला जाऊँगा; और दुःख यह भी नहीं कि क्या उसे ख़ुद का पता था, जो चला गया। क्योंकि इसे जानने का तो कोई उपाय भी नहीं है। दुःख तो असल में इस बात का है कि मैं भी स्वयं को अभी तक शरीर से ऊपर न मानता हूँ, और न ही जानने की तैयारी है। जब भी यह शरीर जाएगा, तो इसके जाने का, इसके मिटने का बोध होगा। और इस बोध के कारण मनुष्य कष्ट के सागर में डूब जाएगा। इससे बचने का कोई उपाय भी नहीं है। तो एक आदमी फिर करे क्या? बस एक काम है, जिसे वह कर सकता है – उसे जान ले जो इस मृत शरीर के भीतर अमृत है। बस।
इसलिए गौर से देखें तो पता चलेगा कि हर व्यक्ति असल में शोक स्वयं के लिए मनाता है। दूसरे की मृत्यु बस एक बहाना भर होती है, जिसमें वह परोक्ष रूप में स्वयं के लिए ही अपनी भावनाएं प्रकट करता है। प्रत्येक मृत्यु एक चोट करती है सबके भीतर। कविता की अंतिम पंक्तियां कहती हैं :
पंच तत्व में मिलकर आज़
तुम याद सभी को आओगे
नश्वर शरीर की सीमा कितनी
तुम चोट सदा पहुँचाओगे।
हां इरफ़ान, तुम चोट सदा पहुचाओगे।
पंच तत्व में तो सबको मिल जाना है। सुपुर्द-ए-ख़ाक होना सबकी नियती है। किसी व्यक्ति का मरना प्रत्येक के लिए एक चोट है, एक घाव है। एक ऐसी चोट, एक ऐसा घाव, जिसे न तो ठीक किया जा सकता है और न ही भरा जा सकता है। जब भी कोई याद किया जाता है, तो वह मिट चुका होता है; और जो याद करता है, उसका भी एक दिन अनंत में विलीन हो जाना तय है। इसलिए याद करना और याद किया जाना, सब निर्मूल्य है। सब निरर्थक है।
कल इरफ़ान, आज़ ऋषि कपूर, कल फ़िर कोई और। यह सिलसिला तो चलता रहेगा। शायद कल फिर मैं और परसों फिर आप। मगर इन सबके बीच की सिखावन ओशो रजनीश एक छोटे से वाक्य में समाहित होता है – ‘स्वयं को जाने बिना पूरी पृथ्वी को भी जान लेना व्यर्थ है। आत्मज्ञान ही सिर्फ़ एक मात्र सार्थक क़दम है।’
(लेखक, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर कार्यरत हैं। )