जटाशंकर पाण्डेय । Navpravah.com
लंबे इंतजार के बाद जब भारतीय जनता पार्टी ने अंततः अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर दिया है, तो अब उसपर नया विवाद शुरू हो गया। अत्यंत खोज बीन के बाद चुने गए राष्ट्रपति उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का दलित होना, पलक झपकते ही सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा बनकर महामारी से भी तेज़ गति से फैल गया। इससे पहले अधिकतर लोगों ने कभी उनका नाम भी न सुना होगा। यदि आप भी उनके भूतकाल से अपरिचित हैं, तो आपको बता दें कि माननीय कोविंद जी भारतीय जनता पार्टी के स्वच्छ छवि वाले एक नेता हैं। कोविंद राज्यसभा सदस्य भी रह चुके हैं। गौर करने वाली बात यह है कि कोविंद राष्ट्रपति उम्मीदवार चुने जाने से पूर्व तक बिहार के राज्यपाल भी थे, पर तब किसी ने इस बात पर गौर क्यों नहीं किया था कि वे दलित हैं!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कोविंद को राष्ट्रपति प्रत्याशी घोषित किए जाने पर पूरा देश चौक गया क्योंकि किसी को भी इसकी उम्मीद नहीं थी। उनके ऊपर किसी ‘आम-खास’ आदमी की नज़र ही नहीं थी। वैसे रामनाथ कोविंद एक साफ सुथरी छवि वाले राजनेता हैं। अपने राजनीतिक करिअर में उन्होंने कहीं से भी दाग नहीं लगने दिए हैं। अच्छे विचार और स्वच्छ राजनितिक करिअर के कारण इनका समर्थन भी कई पार्टियाँ कर रही हैं। समर्थनकर्ताओं में यदि गिनें तो राम विलास पासवान, नितीश कुमार, मायावती, मुलायम सिंह ने भी अपना समर्थन देने की बात कही है। उद्धव ठाकरे द्वारा पहले भाजपा का समर्थन न करने की बात सामने आई थी, क्योंकि उनकी नज़र में कोविंद के रूप में मोदी अपना ‘दलित’ वोट साध रहे थे। फिर अचानक पासा पलटा और शिवसेना द्वारा समर्थन की बात भी आ गई!
कांग्रेस ने कोविंद की टक्कर में पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी बनाया है। उनके खेमे में भी ‘दलित’ मुद्दा गरमाया हुआ है। कई अन्य पार्टियाँ भी ‘दलित’ राजनीति की अंगीठी पर अपनी रोटियां सेंकती नज़र आ रही हैं। सभी टी वी चैनल, समाचार पत्रों को मसाला मिल गया है। लोग अपने अपने ढंग से शब्दों को पकड़ कर, तोड़ मरोड़ कर, उसका अर्थ ,भाव सब बदल बदलकर, थोड़ा मसाला वगैरह मिला कर जनता के सामने परोस रहे हैं। राजनीति एक ऐसी बला है कि इससे अछूते बहुत कम लोग हैं।
इस पूरे मामले में ध्यान देने लायक एक मजेदार बात है। जनता इस बात पर विशेष रूप से गौर करे कि जितने भी राजनितिक लोग हैं, उनमें से भी ज्यादातर लोगों ने,अधिकतर न्यूज़ चैनल वालों ने और समाचार पत्र वालों ने श्री राम नाथ कोविन्द को जगह-जगह दलित कह कर ही पुकारा है। रामविलास पासवान, मायावती नीतीश कुमार आदि अदि तमाम लोगो को ख़ुशी इस बात की है कि भाजपा ने किसी दलित को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार चुना है। अब यहाँ पर ‘दलित’ शब्द कोई उच्च सम्माननीय पदवी जैसा जान पड़ रहा है। परंतु मेरे विचार से ‘दलित’ शब्द किसी समय में ऐसे लोगों के लिए प्रयोग किया गया था, जो निचली जाति के लोग थे, उच्च जातियों द्वारा सताए गए थे, जिनको दो वक्त की रोटी सुलभ नहीं थी, तन पर कपड़े नहीं थे, साबुन का नाम कभी सुना नहीं था, दिन रात मेहनत करने पर भी जिनकी आँखे हमेशा नम ही रहती थीं। उनके मासूम बच्चे रूखी सूखी खा कर कही पेंड के नीचे अछूत बने पड़े रहते थे। ऐसे दीन दुखी लोगों को ‘दलित’ कहा गया था।
हिंदी के शब्दों को अगर मन से गुना जाए, तो शब्द दिल को छूते हुए भाव को महसूस कराते हैं। ‘दलित’ शब्द का अर्थ ही है अभाव में जी रहा व्यक्ति, समाज द्वारा कुचला हुआ, तिरस्कृत व्यक्ति। आज बड़े-बड़े गाड़ी बंगले वाले ‘दलित’ कहलाते हैं, जबकि ये मात्र राजनितिक ‘दलित’ हैं। वास्तव में ये पूर्णतः ‘फलित’ हैं। एक सामान्य आदमी को अगर ‘दलित’ कह दिया जाए, तो वह खून-खराबे को तैयार हो जाएगा, लेकिन राजनितिक मामले में किसी भी महान को, किसी भी धनवान,किसी भी बलवान को अगर दलित कहा जाए, तो वह सर झुका कर स्वीकार भले कर ले मंच पर, लेकिन उसके दिल में चुभेगा अवश्य। क्या कोविंद को उनकी उपलब्धियों की बजाय ‘दलित’ शब्द से पहचान पाना रास आया होगा? क्या किसी भी राजनीतिक दल को, किसी भी न्यूज़ चैनल को, किसी भी समाचारपत्र को यह अधिकार था कि वह एक सफल, उन्नत, प्रतिभावान व्यक्तित्त्व को उसकी प्रतिभा की बजाय, इस वजह से प्रसिद्ध कर दे, क्योंकि वे दलित हैं? क्या राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने की उनकी योग्यता को उजागर करने से अधिक महत्त्वपूर्ण उनके दलित होने को उजागर करना था? इक बुद्धिजीवी व्यक्ति के लिए इनमें से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर निश्चित ही ‘नहीं’ होगा।