बिमल रॉय- “प्रगतिशील सिनेमा” के पुरोधा

शिखा पाण्डेय,

हिंदी फिल्मों के प्रारंभिक दौर में नायक केंद्रित कथानकों का ही जोर रहा है, लेकिन नायिकाओं को केंद्रित कर फिल्में बनाने की शुरुआत व उन्हें कामयाबी के उच्च शिखर पर ले जाने का श्रेय जाता है, निर्देशक बिमल रॉय को। बिमल राय का नाम आते ही हमारे जहन में सामाजिक फ़िल्मों का ताना-बाना आँखों के सामने घूमने लगता है। हिंदी सिनेमा में प्रचलित यथार्थवादी और व्यावसायिक धाराओं के बीच की दूरी को पाटते हुए लोकप्रिय फ़िल्में बनाने वाले बिमल रॉय बेहद संवेदनशील और मौलिक फ़िल्मकार थे।

12 जुलाई 1909 को ढाका (बांग्लादेश) के जमींदार परिवार में जन्मे बिमल रॉय बचपन से ही अंतर्मुखी थे। बिमल दा की फिल्मों में एंट्री बतौर कैमरामैन हुई। बिमल दा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया और 1944 में उन्होंने ‘उदयेर पौथे’ नाम की बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया। सन् 1935 में उन्होंने के. एल. सहगल की फ़िल्म देवदास के सहायक निर्देशक के रूप में काम किया। बिमल राय मानवीय अनुभूतियों के गहरे पारखी और सामाजिक मनोवैज्ञानिक थे। उनकी फिल्मों में कहीं से भी जबरदस्ती थोपी हुई या बड़बोलेपन की झलक नहीं मिलती। इसके अलावा सिनेमा तकनीक पर भी उनकी मज़बूत पकड़ थी, जिससे उनकी फ़िल्में दर्शकों को प्रभावित करती हैं और दर्शकों को अंत तक बांध कर रखने में सफल होती हैं। शायद यही वजह रही कि जब उनकी फ़िल्में आईं तो प्रतिस्पर्धा में दूसरा निर्देशक नहीं ठहर सका।

film

देशभक्ति और सामाजिक फ़िल्मों से अपना सफर शुरू करने वाले बिमल राय की कृतियों के विषय का फलक काफ़ी व्यापक रहा। बिमल राय ने अपनी फ़िल्मों में सामाजिक समस्याओं को तो उठाया ही, उनके समाधान का भी प्रयास किया और पर्याप्त संकेत दिए कि उन स्थितियों से कैसे निबटा जाए। ‘बंदिनी’ और ‘सुजाता’ फ़िल्मों का उदाहरण सामने है, जिनके माध्यम से वह समाज को संदेश देते हैं।

बिमल रॉय कमर्शियल सिनेमा में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। 1958 में आई ‘मधुमती’ ने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के सारे मुकाम तोड़ दिए। इस फिल्म का संगीत भी खूब लोकप्रिय हुआ। 1963 में आई फिल्म ‘बंदिनी’ इनके कैरियर में एक और मील का पत्थर साबित हुई। नूतन, अशोक कुमार और धर्मेन्द्र जैसे कलाकारों से सजी यह फिल्म उस समय में कमाई के मामले में दसवें पायदान पर पहुंच गयी।

बिमल राय स्वयं एक प्रतिभाशाली फ़िल्मकार होने के अलावा निःसन्देह प्रतिभा के अद्भुत पारखी भी थे। मूल रूप से संगीतकार के रूप में ख्यातिप्राप्त सलिल चौधरी के लेखन की ताकत को उन्होंने पहचाना, जिसके फलस्वरूप आज भारत के पास “दो बीघा ज़मीन” जैसा अमूल्य रत्न है। जैसे साहित्य के क्षेत्र में उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के ‘गोदान’ का नायक ‘होरी’ अभावग्रस्त और चिर संघर्षरत भारतीय किसान का प्रतीक बन चुका है तो वैसे ही ग्रामीण सामंती व्यवस्था और नगरों के नृशंस पूँजीवाद के बीच पिसते श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि का दर्ज़ा ‘दो बीघा ज़मीन’ के ‘शम्भू’ को प्राप्त है। यदि प्रगतिशील साहित्य की तरह “प्रगतिशील सिनेमा” की बात की जाए तो बिमल राय निःसन्देह इसके पुरोधा माने जायेंगे।

बिमल रॉय ‘चैताली’ फिल्म पर काम कर रहे थे, लेकिन 1966 में 7 जनवरी को मुंबई, महाराष्ट्र में कैंसर से लड़ते हुए सिर्फ 56 साल की उम्र में इस संसार से विदा हो गये। परंतु जाने से पहले वो फिल्म जगत को अपनी नायाब फिल्मों का ऐसा उपहार दे गये, जो सदा ही फिल्म जगत को अपनी सुगंध से महकाता रहेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.