जटाशंकर पाण्डेय,
भारतीय जनता पार्टी यानी सत्ता पक्ष के अलावा सारी पार्टियां आज भारत बंद में शामिल होने वाली थीं। एक नितीश कुमार के अलावा सब लोग संसद से लेकर सड़क तक हाहाकार मचा देने वाले थे। पूरा विपक्ष नोट बंदी के खिलाफ एकजुट दिख रहा था और दिनांक 28 नवम्बर को भारत बंद का ऐलान किया गया था। जैसे-जैसे समय नजदीक आया, धीरे-धीरे सब लोगों ने पल्ला झाड़ लिया। मात्र कांग्रेस और वाम दल कहीं कहीं सडकों पर दिखे। कहीं कहीं तृणमूल कांग्रेस भी दिख गई।
जिस जोश खरोश के साथ विपक्ष ने गुब्बारा फुलाया, पब्लिक ने उसमें पिन चुभो दी और सारी हवा निकल गई। कुछ कार्यकर्ताओं के साथ ममता बनर्जी गरजीं, कहीं वाम दल तो कहीं राहुल गांधी। इन गिनी-चुनी पार्टियों के लोग भी एकजुट नहीं दिखे। किसी प्रदेश की इकाई भारत बंद के पक्ष में थीं तो किसी पार्टी की प्रदेश इकाई बंद का समर्थन नहीं कर रही थी।
सब मिला जुला के हल यह निकला कि कहीं न कहीं सभी पार्टियों के मन में यह बात खटक रही है कि जनता सरकार के साथ है। जनता नोट बंदी से परेशान है, फिर भी सरकार का साथ दे रही है। ये जानते हैं कि अगर ये सड़क पर ज्यादा हंगामा मचाएंगे, तो जनता इनके कृत्य को बर्दाश्त नहीं करेगी।
जनता नोट बंदी से काफी परेशान है। इस बात को जनता भी जानती है और सरकार भी। फिर भी विपक्ष परेशानी का डंका बजा रहा है। कोई बात किसी से छुपी नहीं है। इन सभी बातों से विपक्ष काफी बौखलाया है, लेकिन जनता के आगे उसकी कुछ चल नहीं रही है। विपक्षी पार्टियों का लिया हुआ हर फैसला फेल होता जा रहा है। हाँ, एक बात है कि संसद में जनता नहीं है, जनता के प्रतिनिधि हैं। यहां पर ये विरोधी स्वतन्त्र हैं, न ही ये चर्चा कर रहे हैं, न ही करने दे रहे हैं। ये क्या चाह रहे हैं पता नहीं।
जनता के करोड़ों रुपये संसद के ऊपर खर्च हो रहे हैं और ये मुर्ग-मसल्लम, रबड़ी-बिरयानी खा कर हंगामा कर रहे हैं। अध्यक्ष की कोई गरिमा ही नहीं है। वह सबको चुप कराने में ही परेशान रहते हैं। उनकी कोई सुनता ही नहीं है। आज ‘विपक्ष’ का मतलब है सरकार चाहे जो भी करे ,सरकार अगर गलत करे तो गलत है ही, अगर अच्छा करे तो भी ये गलत बोलेगें, क्योंकि ये विपक्ष में हैं। मतलब विपरीत हैं। सरकार जो करे उसको गलत बोलना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
आज विपक्ष ऐसा फंसा है कि जो फैसला लिया है, उस पर टिक भी नहीं सकता क्योंकि जनता सपोर्ट नहीं करेगी। उसको वापस ले? यह भी बड़े शर्मिन्दगी कि बात है। आगे चुनाव है, क्या करें कुछ समझ नहीं आता। इन सबके बीच पिस रही है जनता। जनता की तो वही हालात है कि, ‘दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।’