AnujHanumat@Navpravah.com
“पोखर को मैदान बनाया, मरता हुआ किसान बनाया, शहर बनाए, गाँव मिटाए, जंगल और पहाड़ हटाए, जहर मिले दुकानों में मरना कितना आसान बनाया, ये कैसा हिन्दुस्तान ?”
पिछले डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय से यहाँ के किसान आत्महत्या और सर्वाधिक जल संकट से जूझ रहे हैं। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो अप्रैल वर्ष 2003 से मार्च 2015 तक 3280 (करीब चार हजार) किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सूखे की भीषण मार झेल रही बुन्देलखण्ड की बंजर धरती के किसान इस बार भी पहले सूखे और फिर हाड़तोड़ मेहनत के बाद तैयार फसल पर ओलों की बारिश से आत्महत्या करने पर मजबूर हैं। पिछले 2 महीनों में शायद ही कोई ऐसा दिन गया हो जब गाँव से निकलती खबर में किसी किसान के आत्महत्या का मामला न आया हो। लाशो पर आंदोलन और सियासत का माहौल गर्म है, मगर उन गाँव का हाल जस का तस है, जहाँ सन्नाटे को चीरती किसान परिवारों की चींखे सिसकियों के साथ हमदर्दी जताने वालों की होड़ में बार बार शर्मसार होती है। सूखे का आलम इतना विकराल है कि अब यहाँ के किसान उसी छाते का प्रयोग अपने दो वक्त की रोजी रोटी के लिए कर रहे हैं, जिसका प्रयोग प्रायः लोग पानी बरसने पर अपनी शरीर ढंकने के लिए करते हैं।
कुछ सालों पहले विश्वविख्यात जबांजों की इस धरती के लोग भी बरसात में अपने शरीर को ढंकने के लिए छाते का प्रयोग करते थे, पर पिछले कई सालों से भगवान इंद्र जिस बेरुखी से रूठे हैं यहाँ के अधिकतर लोगो को अपना जीवनयापन इसी छाते को उल्टा करके करना पड रहा है। यहाँ का निवासी होना मेरे लिए गर्व की बात है पर इस वक्त यहाँ के किसान जिस प्रकार मौसम की मार झेल रहे हैं उसे देखकर बहुत दुःख होता है। ये नजारा जो आप चित्र में देख रहे है, ये महज एक चित्र नही बल्कि बुंदेलियों का जिंदगी से जूझने का वर्तमान उपाय है। मैं इसे ‘अम्ब्रेला शॉप’ का नाम इसलिए दे रहा हूँ, क्योकि इस अम्ब्रेला को उलटा करके इसी पे बिकवाली के लिए छोटी छोटी वस्तुएं रखी जाती हैं फिर इससे जो भी धन मिलता है, ससे ये लोग अपना परिवार पालते हैं।
बुन्देलखन्ड के आम जनजीवन पर आई ताजा रिपोर्ट से सरकार को उलझन मससूस हो सकती है,पर यहाँ के हालात बहुत चिंताजनक है, इसमें कोई दोराय नही। बुंदेलों की धरती पिछले तीन साल से बंजर पडी है, जलस्रोत लगभग सूख चुके हैं। पीने का पानी खत्म होता जा रहा है, यहाँ से लगभग ज्यादातर युवाओं का पलायन हो चुका है। फूल पत्ती, अनाज के पौधे तो क्या बड़े पेड़ पौधे, जीव-जंतुओं और इंसान तक के अस्तित्व पर खतरा उत्पन्न हो गया है। यहाँ के अधिकतर लोगो ने अपने पालतू पशुओं को हमेशा के लिए खूंटे से छोड़ दिया है, जिससे अन्ना प्रथा में अचानक बहुत तेजी आ गयी है। यहाँ के किसानो ने पिछले तीन सालों से ठीक प्रकार से बाजरा ,मूंग,सोयबीन की फसल नही देखी, ये फसलें पानी के अभाव में लगातार चौपट हो रही हैं, इन्हें उगाने वाले अधिकांश किसान बर्बादी की कगार पर हैं। 104 गाँवों के एक हजार से ज्यादा लोगो के सर्वे से तैयार रिपोर्ट में तो यहाँ तक कहा गया है कि हर पांचवा आदमी घास की रोटी खाने को मजबूर हैं। करीब इतनी ही आबादी भूखे रहने पर मजबूर हैं। गरीबी की रेखा के नीचे आने वाले करीब आधे लोग ऐसे हैं, जिन्हें आठ महीने से दाल नसीब नही हुयी है। फल-फूल, हरी सब्जिया नसीब होती नही ,दुधारू पशु घर पर हैं नही ! ऐसे में भुखमरी और कुपोषण फैलना स्वाभाविक है। कृषि प्रधान देश में जहाँ साठ फीसदी आबादी अभी भी रोजगार के लिए कृषि पर आधारित है वहीं मानसून से किसानों की बहुत सी उम्मीदें जुडी हुई है। अनाज उगाने वाले अन्नदाता अर्थात किसान आज भुखमरी और बेरोजगारी के शिकार हैं। कृषि व् कृषक सदियों से लोगो का पेट भरते आए हैं। गिरता हुआ जलस्तर,बढ़ती महंगाई ,सूखते कुँए व् तालाब तथा आत्महत्या करते हुए किसान बडे ही मार्मिक अंदाज में सरकारों से ये सवाल पूछ रहे हैं कि अभी भी यदि इन समस्यायों से निपटने का कुशल प्रबन्धन नही किया गया तो निश्चित ही एक दिन भारत की अधिकतर आबादी भूख से मर रही होगी ।
इस समस्या से निपटने के लिए सरकार के सामने दो तरह के उपाय दिखाई देते हैं । एक तात्कालिक और दुसरे दीर्घकालिक। तात्कालिक उपायों में पेयजल संकट ,भुखमरी,बेरोजगारी दूर करने के साथ ही जानवरों के लिए चारा और इंसानों के लिए रोजगार के अविलम्ब इंतजाम की आवश्यकता है। दूसरा इस क्षेत्र की भौगोलिक और जलवायिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर दीर्घकालिक उपायों को खोजा जाना चाहिए। इसके तहत लगातार तीन चार साल तक कम बारिश के बावजूद पीने और सिंचाई के लिए पानी के भण्डारण की व्यवस्था,कम पानी में लहलहाने वाली स्थानीय प्रजातियों की पैदावार क्षमता बढ़ाना । स्थानीय उपज पर आधारित कुटीर उद्योगों को पल्लवित करने के लिए रेल, रोड और हवाई यातायात को सुगम बनाना। बिना विजन के पॅकेज जारी करने से इस क्षेत्र के भले की उम्मीद रखना दिन में सपने देखने जैसा ही साबित होगा ।
उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में विभाजित बुन्देलखण्ड इलाका पिछले कई वर्षो से प्राकृतिक आपदाओँ का दंश झेल रहा है ।भुखमरी और सूखे की त्रासदी से अब तक 62 लाख से अधिक किसान ‘वीरों की धरती’ से पलायन कर चुके हैं। यहाँ के किसानों को उम्मीद थी की अब की बार के लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दल सूखा और पलायन को अपना मुद्दा बनाएंगे ,लेकिन ऐसा हुआ नही और एक बार फिर यह मुद्दा जातीय बयार में दब सा गया है। यहाँ का किसान ‘कर्ज’ और ‘मर्ज’ के मकड़जाल में जकड़ा है ।तकरीबन सभी राजनीतिक दल किसानों के लिए झूठी हमदर्दी जताते रहे हैं,लेकिन यहाँ से पलायन कर रहे किसानों के मुद्दे को चुनावी मुद्दा नही बनाया गया। समूचे बुन्देलखण्ड में स्थानीय मुद्दे गायब हैं और जातीय बयार बह रही है। दो वर्ष पहले केंद्रीय मंत्रिमण्डल की आंतरिक समिति ने प्रधानमन्त्री कार्यालय को एक चौकाने वाली रिपोर्ट पेश की थी । रिपोर्ट पर अध्ययन करके जो आंकड़ें जारी किये गए हैं उनके मुताबिक बुन्देलखण्ड में पलायन सुरसा की तरह विकराल है।
उत्तर प्रदेश के हिस्से वालें बुन्देलखण्ड के जिलों में बांदा से 7 लाख 37 हजार 920 ,चित्रकूट से 3 लाख 44 हजार 801,महोबा से 2 लाख 97 हजार 547,हमीरपुर से 4 लाख 17 हजार 489 ,उरई(जालौन) से 5 लाख 38 हजार 147 ,झांसी से 5 लाख 58 हजार 377 व् ललितपुर से 3 लाख 81 हजार 316 और मध्य प्रदेश के हिस्से वाले जनपदों में टीकमगढ़ से 5 लाख 89 हजार 371 ,छतरपुर से 7 लाख 66 हजार 809,सागर से 8 लाख 49 हजार 148 ,दतिया से 2 लाख 901,पन्ना से 2 लाख 56 हजार 270 और दतिया से 2 लाख 70 हजार 277 किसान और कामगार आर्थिक तंगी की वजह से महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं ।इस समिति ने बुन्देलखण्ड की दशा सुधारने के लिए बुन्देलखण्ड विकास प्राधिकरण के गठन के आलावा उत्तर प्रदेश के सात जिलों के लिए 3,866 करोड़ रूपये और मध्य प्रदेश के छह जिलों के लिये 4,310 कऱोड रूपये का पैकेज देने की भी अनुशंसा की थी,एमजीआर अब तक केंद्र सरकार ने इस पर अमल नही किया ।रिपोर्ट यह भी बताती है की सिर्फ उत्तर प्रदेश के हिस्से वालें बुन्देली किसान करीब 6 अरब रूपये किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) के जरिये सरकारी कर्ज लिए हैं।
किसानो के पलायन पर दिए गए तर्क से कुछ किसान मानते हैं की नदियों को आपस में जोड़ने के बजाए यहाँ परम्परागत सिंचाई संसाधनों को बढ़ावा देने की जरूरत है तभी पलायन और दैवीय आपदायों से छुटकारा मिल सकता है यहाँ ग्राम और कृषि आधारित आजीविका की आवश्यकता है ताकि पलायन रोका जा सके, छोटे किसान मनरेगा पर भी सवाल खड़ा करते हैं। अवरोध दूर करना है और हर चेहरे को खुशी लौटानी है तो उद्योग और खेती में संतुलन बनाइये । प्रकृति और मानव निर्मित ढाँचों में संतुलन बनाइये। आर्थिक विकास को समग्र विकास के करीब ले आईये यही समाधान है। यह मैं नही कह रहा, उन विकसित देशों की अगुवाई वाला संयुक्त राष्ट्र संघ जैसा संगठन कह रहा है,जिनका उदाहरण सामने रख भारत सरकार,भारत में भूमि अधिग्रहण संशोधनों की तरफदारी कर रही है। अपनी मंजिल ,अपनी जरूरत,चाहत,सामर्थ्य और परिस्थितियों को सामने रखकर ही तय करनी चाहिए। अन्य उद्योगों को आगे ले जाने हेतु सरकार तत्पर दिखाई दे रही है तो फिर अन्नदाता ही उपेक्षित क्यों ?