वर्तमान भारतीय परिदृश्य में विपक्ष की भूमिका

Anuj Hanumat@Navpravah.com
हमारा भारत विश्व का सबसे बड़ा और प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक देश है और स्वस्थ लोकतंत्र भारत की नींव (जड़) है। हम सभी देशवासी इसके तने व पत्तियाँ हैं! सशक्त लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष के होने से देश मजबूत होता है। लोकतंत्र अन्य सब शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ इसीलिए माना जाता है, जो शासकों की त्रुटियाँ बतलाता रहता है, उसकी आलोचना करता रहता है इसका अंकुश और उसके विरोध का भय सत्ता पक्ष शासकों को मनमानी करने से रोकता है। अतः निंदा या आलोचना से रूष्ट या दुखी होने अथवा बदला लेने की बात सोचने की बजाए उसका रचनात्मक उपयोग करना चाहिए इसी में सबका भला है। निंदा व आलोचना का उपयोग अपने उत्कर्ष और आत्म-परिष्कार के लिए किया जाता है ऐसी आशा की जाती है।
निंदा के प्रयास में अपने दुगुर्णों व दोषों को तलाशें और निंदक के प्रति सहिष्णुता बरतें। निंदक या आलोचक हमारे प्रछन्न प्रशंसक होते हैं। तभी तो कबीरदास जी ने कहा है कि ‘निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय‘।
1950 से लेकर 1964 तक संसद निश्चित तौर पर हमारे लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे जीवंत मंच था। संसदीय प्रणाली के अध्येता आज भी डाॅ॰ राममनोहर लोहिया और पं॰ जवाहर लाल नेहरू के बीच होने वाली बहसों को याद करते हैं। 1963 ई॰ में डाॅ॰ राममनोहर लोहिया ने संसद में एक पर्चा बांटा था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि बतौर प्रधानमंत्री पं॰ जवाहर लाल नेहरू पर प्रतिदिन 25 हजार रूपयों का खर्च आता है, जबकि देश की आम जनता को प्रतिदिन 3 आने की कमाई पर निर्वाह करना पड़ता है। डाॅ॰ राममनोहर लोहिया के इस आरोप पर जब पं॰ नेहरू ने स्पष्टीकरण दिया तो डाॅ॰ लोहिया ने उनके हर तर्क का पुरजोर खंडन किया। पं॰ नेहरू का कहना था कि योजना आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुस्तान के प्रति नागरिक पर प्रतिदिन औसतन 15 आने खर्च होते हैं। पं॰ नेहरू को भी अंततः मानना पड़ा था कि आम आदमी के साथ अन्याय हो रहा है। अर्थात् एक व्यक्ति ने तत्कालीन सरकार का विरोध करके विपक्ष के आने वाले मजबूत स्वरूप का चित्रण कर दिया।
किसी भी लोकतंत्र की प्रतिनिधि संस्था में विपक्ष और उसके नेता की भूमिका भी साफ-साफ होनी चाहिए। मौजूदा लोकसभा के संदर्भ में नेता विपक्ष को लेकर जो विवाद हो रहा है और उस पर जो लेख लिखे जा रहे हैं, उन सभी को पढ़ते हुए यही लगता है कि नेता विपक्ष को लेकर स्पष्ट आख्या नही है। इन लेखों की एक विचित्र प्रवृत्ति है।
एक मजबूत लोकतंत्र के लिए जितना एक सशक्त सरकार की आवश्यकता होती है, उतनी ही सबल विपक्ष की। ऐसे उदाहरण सामने हैं, जब जनता ने कमजोर सरकार को जड़ से उखाड़ फेंका व उसके विकल्प में उस समय के सबल-विपक्ष को बहुमत दिया। कुछ ऐसे उदाहरण भी समाने आए हैं जिनमें यह देखने को मिला कि कमजोर विपक्ष के कारण देश में एक बहुमत वाली सरकार ने तानाशाही का रूप ले लिया। राजीव गाँधी ने नवीं लोकसभा (1989) में कांग्रेस की हार के बाद कहा था कि ‘हमें‘ जनता ने विपक्ष में बैठने की अनुमति प्रदान की है, वे सरकार में प्रहरी की भूमिका का निर्वाहन करेंगे।
सुदृढ़ व संगठित विपक्ष लोकतंत्र की निशानी है। विपक्ष शब्द विरोध की प्रतिध्वनि देता है, जबकि प्रतिपक्ष दायित्व बोध को प्रकट करता है। विश्व संसदों का जनक ब्रिटेन है, जहाँ का प्रधानमंत्री अपनी पत्नी से ज्यादा विपक्ष की जानकारी रखता है।
अगर हम संसद के इतिहास पर नजर डालें तो कई ऐसे उदाहरण दिखते हैं, जब विपक्ष ने मजबूती से तत्कालीन सरकार का विरोध किया। 1987 (बोफोर्स) घोटालों के विरोध में विपक्ष ने 45 दिनों तक संसद चलने ही नहीं  दिया। इसी प्रकार 2001 ( तहलका खुलासा) में 17 दिनो तक संसद नही चली, तब जाकर सरकार को कार्य विधि करनी पड़ी।
इसी प्रकार अभी कुछ साल पहले 2010 (2 जी घोटाला) में तत्कालीन शीतकालीन सत्र बेकार हो गया था, तब 23 दिन के उस सत्र में महज चंद धण्टे काम हुआ और महज 32 विधेयकों पर चर्चा हुयी। लालकृष्ण आड़वानी पहले विपक्ष के नेता हैं जिन्हें कैबिनेट रैंक का दर्जा दिया गया। इसी प्रकार विपक्ष की अहमियत तब भी देखने को मिली जब 11वीं लोकसभा के दौरान सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की पहली बार धरना इसी लोकसभा में हुयी जिसमें विपक्ष के सामने वी०पी० सिंह सरकार को झुकना पड़ा था, विपक्ष में इस सरकार को सत्ता से सत्ताच्युत कर दिया था।
पिछले दो दशक में नारेबाजी, विरोध प्रदर्शन के नजारे बहुत आम हो गए हैं। सांसदों को इनसे जैसे कोई फर्क ही नहीं पड़ता। जानकारों का मानना है कि संसद की कार्यवाही का टेलीविजन पर सीधा प्रसारण शुरू किये जाने के बाद से यह समस्या और बढ़ी है। सांसदो ने इसे अपने प्रचार का माध्यम बना लिया है बरहाल इसका खामियाजा आम जनता को ही भुगतना पड़ता है, जिनका पैसा व्यर्थ जा रहा है।
2004 से 2014 तक पिछले दो दशकों में विपक्ष संख्यात्मक दृष्टि से कमजोर लेकिन गुणात्मक एवं चारित्रिक रूप से प्रभावी था। भारतीय राजनीति के इतिहास में एक ऐसा समय भी आया जब समर्थन और विरोध दोनों बिकाऊ हो गए।विपक्ष को भी दलगत और पक्षपातपूर्ण राजनीति से ऊपर उठकर विधेयकों तथा राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर रचनात्मक वाद-विवाद करने की चुनौती होगी। क्या वे संसद को भार में डूबने की अनुमति देगें? यह आवश्यक है कि हमारे नये
सांसद (विपक्ष) तर्को पर ध्यान दें! इसके पूर्व कि लोग उनका उपहास करें।
लोकतंत्र अन्य सब शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ इसीलिए माना जाता है, क्योंकि उसमें सत्ता पक्ष के अतिरिक्त एक सबल विपक्ष भी होता है, जो शासकों की त्रुटियाँ बतलाता है, उसकी आलोचना करता है, उस पर अंकुश और उसके विरोध का भय शासकों को मनमानी करने से रोकता है।
संसद की दुर्दशा को देखकर बारंबार धूमिल जी याद आते है, जिन्होंने लिखा था-
“एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है। जो न तो रोटी बेलता है, न ही खाता है, बल्कि वह सिर्फ रोटी से खेलता है।”
अर्थात् हर विपक्ष को इतना मजबूत होना चाहिए कि कोई भी सत्तारूढ़ दल/सत्ता आम नागरिकों की रोटियों से खेल न सके और न ही तानाशाही कर सके।
भारत में सदैव सत्तारूढ़ दल कुल मतदान का 49 प्रतिशत मत पाकर भी एकजुटता के कारण सत्ता में रहा तथा कुल मतदान का 51 प्रतिशत मत विपक्षी दलों के पास रहा, लेकिन खण्ड-खण्ड में विभाजित होने के कारण विपक्ष की आवाज नकारी जाती रही है। जहाँ सत्ता का संचालन करना सरकार की जिम्मेदारी है, वही विपक्ष का कार्य रेफरी की भांति चौकसी करना है कि सरकार सही रीति-नीति से शासन-प्रशासन का संचालन करें।
विपक्ष के प्रमुख कार्यों में लोकतन्त्र को लोकपथ पर लाना एवं लोभतंत्र से बचाना, सत्तारूढ़ दल की नाक में नकेल डालने का असरदार हथियार, जनता एवं सरकार के मध्य सेतु का कार्य भी विपक्ष का है और साथ में विपक्ष को संगठित, समर्पित व अनुशासित होना चाहिए क्योंकि विपक्ष देश की वैकल्पिक सरकार है।
अन्त में कलम का एक अदना सा सिपाही होने के नाते मैं सत्तारूढ़ पक्ष व विपक्ष दोनों से यही कहना चाहूँगा, कि-
      “ये रिश्ता दो पाटों का, तेरा भी है मेरा भी है।
      मत गिरा इस घर को, ये तेरा भी है मेरा भी है।।”

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