Amit Dwivedi@Navpravah.com
रेटिंग– */*****
निर्माता– धर्मा प्रोडक्शन्स और फैंटम
निर्देशक– विकास बहल
संगीत– अमित त्रिवेदी
कलाकार– पंकज कपूर, शाहिद कपूर,संजय कपूर, आलिया भट्ट और सुषमा सेठ।
क्वीन जैसी बेहतरीन फिल्म के निर्देशक विकास बहल फिल्म शानदार में कोई जौहर नहीं दिखा पाए। निर्देशक ने सभी मझे कलाकारों का दुरुपयोग किया है। बिना किसी ओर-छोर की कहानी लिए फिल्म के डायरेक्टर विकास और स्क्रीनप्ले राइटर अन्विता दत्त ने साथ में जमकर रायता फैलाया है। फिल्म एक सपने जैसा ही लगता है। फिल्म की शुरुआत और मध्य में नसीरुद्दीन शाह के नैरेशन का हिस्सा ही शानदार है।
पंकज कपूर (टाटा) का परिवार दिवालिया होता है, आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए पंकज कपूर की माँ (सुषमा सेठ) ने खानदान की बड़ी बेटी ईशा (सना कपूर) की शादी एक संपन्न सिंधी परिवार के एक लड़के से तय कर देती हैं। बाद में यह पता चलता है कि सिंधी परिवार भी दिवालिया है। दोनों परिवारों के बीच एक बिज़नेस डील होती है, इसी डील का नाम होता है ‘शानदार’। अब इसका नाम शानदार क्यों है, बिज़नेस डील कब हुआ, कहाँ और क्यों यह बताना निर्देशक और लेखिका ने उचित नहीं समझा।
एकदम फ़िल्मी अंदाज़ में यूरोप की खूबसूरत वादियों की सड़क पर पंकज कपूर की कार से शाहिद के मोटर साईकिल की भिड़ंत हो जाती है। और इसी घटना में हीरो मिलता है अपनी हीरोइन से। इसके बाद फ़िल्म में घटने वाली हर एक चीज़ मात्र सपने की तरह है। कब क्या हो जाएगा, इसका कोई ठिकाना नहीं। आलिया को इनसोमनिया नामक बीमारी होती है, जिसमें रात में नींद नहीं आती। संयोग देखिए कि शाहिद को भी नींद नहीं आती। पंकज शाहिद को इसलिए पसंद नहीं करते कि कार एक्सीडेंट के दौरान शाहिद ने अच्छा व्यवहार नहीं किया था। इसलिए दोनों में नोक झोक भी दिखाया गया है। ईशा की जिस लड़के से शादी तय की जाती है वह उसकी बेइज़्ज़ती करता है जिसकी वजह से ईशा दुखी रहती है। ईशा के मोटापे का मज़ाक उड़ाने और उस पर हँसने की वजह से ईशा भी हैरी को पसंद नहीं करती।
फ़िल्म में कलाकारों के अभिनय में ज़रा भी बनावटीपन नहीं नज़र आती। पूरी फ़िल्म में निर्देशक,कहानीकार और पटकथा लेखक ही कमज़ोर सिद्ध होते दिखे हैं।
ज़बरदस्ती के संवाद भर-भर के डाला गया है, जिनकी कोई ज़रूरत नहीं थी। अंजना सुखानी जैसी कलाकारा को फ़िल्म में एक भी डायलॉग नहीं दिया गया।
अगर आप समीक्षा को पढ़कर ऊब गए हैं तो मान लीजिए कि फ़िल्म को झेल पाना मुश्किल है। कहानी को दिशाहीन भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि किसी भी एंगल से फ़िल्म में कहानी नज़र ही नहीं आई। हाँ, अमित त्रिवेदी के संगीत ने जान ज़रूर बचा ली। संगीत ने फ़िल्म में ऑक्सीजन का काम किया है।
क्यों देखें- ऐसी कोई वजह नहीं है, जो आपको फ़िल्म देखने पर मजबूर करे।
क्यों न देखें- फ़िल्म की कहानी का कोई अता पता नहीं है। समय और पैसा ज़ाया नहीं करना है तो मनोरंजन का कोई और विकल्प तलाश लें।