अनुज हनुमत
स्वातंत्रयोत्तर हिंदी पत्रकारिता को आजादी के दीवानों को ताकत देने के साथ ही साथ उसे निष्पक्ष और समाजोपयोगी तेवर देने वाले पत्रकारों में सबसे अग्रणी गणेश शंकर विद्यार्थी को माना जाता है। किसी के लिए भी अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना, एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम ऐसे ही पत्रकारों में गिना जाता है।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग में 26 अक्टूबर 1890 को हुआ था। अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ गणेश शंकर विद्यार्थी की कलम खूब चली, जिससे उस समय नौजवानों को उनसे प्रेरणा मिली। वे अपने नाम के आगे विद्यार्थी इसलिए जोड़ते थे क्योंकि उनका मानना था कि मनुष्य जिंदगी भर सीखता रहता है।
एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, साथ ही वे एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। भारत के ‘स्वाधीनता संग्राम’ में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था।
गणेशशंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च सन् 1931 ई. में हो गई। विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए थे। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि, उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अंतिम संस्कार कर दिया गया।
भारत में पत्रकारिता का उद्भव परतंत्रता के दौर में हुआ। अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अन्याय और शोषण के दौर में पत्रकारिता का रुख स्वाभाविक रूप से प्रतिष्ठान विरोधी हो गया। भारतीय पत्रकारिता ने अपने इस रुख की एक बड़ी कीमत भी अदा की। बाल गंगाधर तिलक से शुरू होने वाली जुझारू और साहसी पत्रकारिता को गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने समाचार पत्र ‘प्रताप’ के जरिए एक नई ऊंचाई प्रदान की। उनके नाम के साथ विद्यार्थी शब्द जुड़ा है लेकिन निश्चित रूप से वह कांतिकारी और आत्मोत्सर्गी पत्रकारिता के गुरु हैं।
विद्यार्थी जी का बचपन विदिशा और मुंगावली में बीता। किशोर अवस्था में उन्होंने समाचार पत्रों के प्रति अपनी रुचि को जाहिर कर दिया था। वे उन दिनों प्रकाशित होने वाले भारत मित्र, बंगवासी जैसे अन्य समाचार पत्रों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन करते थे। इसका असर यह हुआ कि पठन-पाठन के प्रति उनकी रुचि दिनों-दिन बढ़ती गई। उन्होंने अपने समय के विख्यात विचारकों वाल्टेयर, थोरो, इमर्सन, जॉन स्टुअर्ट मिल, शेख सादी सहित अन्य रचनाकारों की कृतियों का अध्ययन किया। वे लोकमान्य तिलक के राष्ट्रीय दर्शन से बेहद प्रभावित थे। महात्मा गांधी ने उन दिनों अंग्रेजों के खिलाफ अहिंसात्मक आंदोलन की शुरूआत की थी, जिससे विद्यार्थी जी सहमत नहीं थे, क्योंकि वे स्वभाव से उग्रवादी विचारों के थे।
विद्यार्थी जी ने मात्र 16 वर्ष की अल्प आयु में ‘हमारी आत्मोसर्गता’ नामक एक किताब लिख डाली थी। वर्ष 1911 में भारत के चर्चित समाचार पत्र सरस्वती में उनका पहला लेख आत्मोसर्ग शीर्षक से प्रकाशित हुआ था, जिसका संपादन हिंदी के उद्भूत विद्धान आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया जाता था। वे द्विवेदी के व्यक्तित्व एवं विचारों से प्रभावित होकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। श्री द्विवेदी के सानिध्य में सरस्वती में काम करते हुए उन्होंने साहित्यिक, सांस्कृतिक सरोकारों के प्रति अपना रुझान बढ़ाया। इसके साथ ही वे महामना पंडित मदन मोहन मालवीय के पत्र ‘अभ्युदय’ से भी जुड़ गए।
उनके निधन पर गाँधी जी ने ‘यंग’ में लिखा था – ‘गणेश का निधन हम सब की ईर्ष्या का परिणाम है। उनका रक्त दो समुदायों को जोड़ने के लिए सीमेंट का कार्य करेगा। कोई भी संधि हमारे हृदयों को नहीं बाँध सकती है।’ उनकी मृत्यु से सब पिघल गए और जब वे होश में आये तो एक ही आकार में थे – वह था मानव। लेकिन एक महामानव अपनी बलि देकर उन्हें मानव होने का पाठ पढ़ा गया था।
कानपुर में उनकी स्मृति में “गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक चिकित्सा महाविद्यालय और गणेश उद्यान” बनाया गया है।
आज गणेश शंकर विद्यार्थी तो हमारे बीच नही हैं पर उनके बताये गए आदर्श व सिद्धांत आज भी हमें मजबूती प्रदान करते हैं। वे अक्सर कहा करते थे कि समाज का हर नागरिक एक पत्रकार है, इसलिए उसे अपने नैतिक दायित्वों का निर्वाहन सदैव करना चाहिए। गणेश शंकर विद्यार्थी पत्रकारिता को एक मिशन मानते थे, पर आज के समय में पत्रकारिता मिशन नही बल्कि इसमें बाजार हावी हो गया है। जिसके कारण इसकी मौजूदा प्रासंगिकता खतरे में है।