न्यूज़ डेस्क | Navpravah.com
हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के परीक्षण को अस्थायी तरीक़े से रोक लगाने के डबल्यूएचओ के फ़ैसले का भारत में विरोध बढ़ता ही जा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय और आईसीएमआर के बाद अब वैज्ञानिक शेखर मंडे और आईजीआईबी के निदेशक अनुराग अग्रवाल सहित तमाम वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने स्वास्थ्य संगठन के इस फ़ैसले को ग़लत बताते हुए अपनी नाराज़गी जाहिर की है। और इस फ़ैसले को ग़लत ठहराया है।
इस मामले में अपनी राय रखते हुए एक पत्र लिखा गया है। डबल्यूएचओ को लिखे पत्र का हवाला देते हुए शेखर मंडे ने बताया कि हम संगठन के इस फ़ैसले से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा कि हम निवेदन करते हैं कि कोरोना मामलों में इसके उपयोग के लिए परीक्षणों को जल्द से जल्द फिर से शुरू करने की अनुमति दी जाए। इन लोगों ने अपना खत ईमेल से लैंसेट पेपर संपादक रिचर्ड चार्ल्स हॉर्टन को भी भेजा है। इसमें कहा गया है कि एचसीक्यू और क्लोरोक्वीन और कोविड-19 पर इसके प्रभाव पर लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन सही नहीं है।
भारतीय वैज्ञानिकों ने उस अध्ययन को आधारहीन बताया, जिसके आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस दवाई के परीक्षण पर अस्थायी रोक लगाई गई है। मंडे ने कहा कि अध्ययन का डिजाइन और सांख्यिकीय सही नहीं है। ऐसे में यह अध्ययन ध्यान देने योग्य नहीं है। मंडे ने कहा कि डब्ल्यूएचओ का फैसला सवालों के घेरे में है और सांख्यिकीय समीक्षा सही नहीं है।
दरअसल, साइंस जर्नल ‘लैंसेट’ ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन को लेकर एक शोध के आधार पर इस दवाई को बेअसर करारा दिया। अध्ययन में कहा गया है कि मलेरिया की इस दवाई से कोरोना मरीजों को किसी तरह का स्वास्थ्य लाभ नहीं हो रहा है।
जानकारी के मुताबिक़, अध्ययन में कोरोना से संक्रमित 96 हजार मरीजों को शामिल किया गया। इनमें से 15 हजार लोगों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन या फिर कोई दूसरी दवाई दी गई।
अध्ययन में यह बात सामने आई कि दूसरे मरीजों की तुलना में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन खाने वाले वर्ग में ज्यादा मौतें हुईं। इन मरीजों में हृदय रोग की समस्या भी देखी गई। जिन्हें हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दी गई, उनमें मृत्यु दर 18 फीसदी रही।
अब इस शोध के आधार को तथ्यहीन बताते हुए भारतीय वैज्ञानिकों ने इसके परीक्षण को अस्थायी रूप से रोकने को ग़लत बताया है।