महिलाएँ: परिवार और समाज के आर्थिक ताने-बाने की रीढ़

नलिनी मिश्रा | navpravah.com

नई दिल्ली | एक दृश्य ने मुझे गहरे विचारों में डाल दिया। सड़क किनारे एक स्थानीय महिला, जो समाज के वंचित वर्ग से थी, सब्जी बेच रही थी। यह दृश्य मेरे लिए नया नहीं था, लेकिन आज मैंने इसे अलग नज़र से देखा। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश, भारत में, जितनी भी वंचित वर्ग की महिलाएँ हैं, वे सदियों से अपने दम पर आर्थिक रूप से सशक्त रही हैं। चाहे वह सब्जी बेचना हो, सफाई का काम हो, चूड़ी बेचना हो, कपड़े धोना हो, या बर्तन मांजना हो- ये महिलाएँ हमेशा से अपने परिवार के आर्थिक मामलों में सहयोग करती आई हैं।

मुझे यह सोचने पर मजबूर किया कि आखिर क्यों उनके पतियों या परिवार के सदस्यों ने कभी उनसे यह नहीं कहा कि “तुम घर पर रहो, मैं कमाई करके लाऊँगा।” इसके विपरीत, समाज के संपन्न वर्ग की महिलाओं की स्थिति बिल्कुल उलट रही है। सदियों से, संपन्न वर्ग की महिलाएँ शायद ही कभी आर्थिक भागीदारी का हिस्सा हो और आज जब समाज में महिलाएँ खुद से कमाई करने की बात करती हैं, तो कई सवाल उठते हैं। “घर कौन देखेगा?” “बच्चों की देखभाल कौन करेगा?” “मैं पैसे कमा रहा हूँ, तुम्हें क्या ज़रूरत?” -कि तुम देश का भविष्य बना रही हो। (बच्चों की देखभाल को देश के भविष्य से जोड़ा जाता है।)यह सवाल सामाजिक ढाँचे और परंपराओं पर सवाल खड़े करते हैं।

वंचित वर्ग की महिलाएँ, जो हमेशा से कठिन परिश्रम करती रही हैं, उन्हें सशक्तिकरण की परिभाषा समझाने की आवश्यकता ही नहीं थी। वे पहले से ही आत्मनिर्भर थीं। उनके लिए घर और बाहर का संतुलन साधना उनकी ज़िंदगी का हिस्सा रहा है। वहीं संपन्न वर्ग की महिलाओं को घर की चारदीवारी में बंधी रहने के लिए मजबूर किया गया, उन्हें आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनने के अवसर ही नहीं दिए गए। और आज जब वे इस दिशा में कदम बढ़ाना चाहती हैं, तो उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

यह समझना भी ज़रूरी है कि केवल पैसा कमाना सशक्तिकरण की परिभाषा नहीं है। असल सशक्तिकरण तब होता है जब महिलाएँ अपने जीवन से जुड़े फैसले स्वयं ले पाती हैं। चाहे वह घर के भीतर काम करने का निर्णय हो या बाहर काम करने का, असली सशक्तिकरण यही है कि महिलाएँ खुद अपनी पसंद से निर्णय ले सकें। पैसा कमाना सशक्तिकरण का एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन फैसले लेने की स्वतंत्रता असल सशक्तिकरण की पहचान है।

हमारे समाज में यह फर्क सिर्फ आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण से भी जुड़ा हुआ है। जहाँ वंचित वर्ग की महिलाएँ जीवनयापन के लिए बाहर काम करती हैं, वहीं संपन्न वर्ग की महिलाएँ घर की चारदीवारी में बंधी रहती हैं। यह अंतर इस बात की तरफ इशारा करता है कि सशक्तिकरण का असल अर्थ केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता नहीं, बल्कि सामाजिक मानसिकता में बदलाव भी है।

समाज को यह समझना होगा कि महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे परिवार और समाज के लिए फायदेमंद है। महिलाओं के काम करने से उनके आत्मसम्मान में वृद्धि होती है और वे समाज में एक सक्रिय भूमिका निभाती हैं। इसके साथ ही, बच्चों और परिवार की देखभाल का भार केवल महिलाओं पर डालना एक पुरानी और गलत धारणा है।

परिवार एक साझेदारी होती है, और इसका संतुलन दोनों पति-पत्नी को मिलकर साधना चाहिए।यह सोचने का वक्त है कि आखिर क्यों हमारा समाज अब तक इन धारणाओं में बंधा हुआ है, और हमें इन्हें तोड़ने की दिशा में क्या कदम उठाने चाहिए। महिलाएँ, चाहे किसी भी वर्ग से हों, उन्हें सशक्त बनाना समय की मांग है। सशक्तिकरण केवल उनके काम करने से नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग में उनके प्रति सम्मान और समर्पण से भी होना चाहिए।

(नलिनी मिश्रा, एक दशक से अधिक समय से समाज सेवा में सक्रिय हैं।)

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