शिक्षा डेस्क. बालभारती कक्षा दूसरी की पाठ्यपुस्तक शिक्षण संस्थानों में आ चुकी है। अपनी खूबसूरती और सीमाओं के साथ शिक्षा जगत इसे अपना चुका है। महाराष्ट्र के कोने-कोने से पुस्तक पर सकारात्मक प्रतिक्रिया आ रही है।
पुस्तक के सभी पहलुओं को लेकर महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती व अभ्यासक्रम संशोधन, पुणे की हिंदी भाषा विशेषाधिकारी डॉ. अलका पोतदार से डॉ. जीतेन्द्र पांडेय से विस्तृत बातचीत हुई। पाठ्यपुस्तक निर्मिती को लेकर प्रस्तुत है डॉ. अलका पोतदार का लघु साक्षात्कार :
डिजिटल युग में पाठ्यपुस्तकों का निर्माण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। कक्षा दूसरी की पाठ्यपुस्तक निर्मिती में आप ने इस चुनौती को किस प्रकार स्वीकार किया?
बिल्कुल सही कहा आपने। आज हम डिजिटल हो चुके हैं। महाराष्ट्र के दूर-दराज़ गाँवों में आज भी बच्चे ज्ञान और सूचना के लिए पाठ्यपुस्तकों पर निर्भर हैं। हमारी चुनौती डिजिटल नहीं बल्कि ग्रामीण और शहरी दोनों प्रकार के छात्रों को संतुष्ट करना है। कहने का मतलब यह कि शहरी बच्चे हल, फावड़ा, बैलगाड़ी, कुआँ और ग्रामीण परिवेश से परिचित हों और ग्रामीण विद्यार्थी विश्व की गतिविधियों से परिचित हो सकें।
दूसरे बोर्ड्स की अपेक्षा बालभारती की दूसरी कक्षा की पुस्तक किन अर्थों में अलग है?
पुस्तक निर्मिती के दौरान हमारी टीम ने अलग-अलग बोर्ड्स की पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया था। कुछ बोर्ड्स तो ऐसे हैं जिन्होंने एक ही विषय को सभी कक्षाओं में रखा है, थोड़ा विस्तार के साथ। हमने ऐसा नहीं किया। हमारे यहाँ विषय की वैविध्यता है। बाल मनोविज्ञान के आधार पर हमनें पाठों का चयन किया है। यहाँ तक कि लेखकों से विद्यार्थियों के स्तर को ध्यान में रखते हुए सामग्री लिखवाई भी गई है। हमनें कहीं भी पुस्तक की गुणवत्ता के साथ समझौता नहीं किया है।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ सर्वधर्म समभाव को महत्त्व दिया जाता है। पुस्तक में इस आवश्यकता की पूर्ति किस प्रकार हुई है?
सर्वधर्म समभाव एक संवेदनशील मुद्दा भी है। बड़ी सावधानी के साथ इस चीज को पुस्तक में स्थान मिला है।यदि आप पुस्तक को पलटें तो किताब की शुरुआत ही “मीरा और कबीर” नामक दो पात्रों से होती है। संवाद वाले पाठों में सभी धर्म के पात्र लिए गए हैं। इससे हमारे पाठ की खूबसूरती और भी बढ़ी है।
आज आईबी, आईजीएससी, सीबीएसई, आईसीएससी सहित देश के अन्य बोर्ड्स में एक स्पर्धा मची है। ऐसी स्थिति में बालभारती की हिंदी पुस्तकें अपने को कहाँ पाती हैं?
देखिए जीतेंद्र जी, स्पर्धा तो हर वक़्त रही है। यह भी सच है कि नैतिक मूल्यों का क्षरण भी बड़ी तेजी से हो रहा है। किसी भी पाठ्यपुस्तक में इन दोनों में संतुलन तो रहना चाहिए। हमारे विद्यार्थियों को दुनिया के साथ कदमताल करते हुए अपने आचरण में मूल्यों को भी जीवित रखना होगा। इसके लिए पाठ्यपुस्तकों की भूमिका बड़ी महत्त्वपूर्ण है। मुझे गर्व है कि कक्षा दूसरी की यह पुस्तक जो आपके हाथ में है, उसका प्रारंभ ही बड़ों के प्रति अभिवादन से होता है। मुझे लगता है कि छात्रों को बेहतर इंसान बनाना पाठ्यपुस्तकों का उद्देश्य होना चाहिए।
आकर्षक साज-सज्जा और उम्दा सामग्री से लैस कक्षा दूसरी की पुस्तक अब नन्हे हाथों में पहुँच चुकी है। इसका श्रेय किसे जाता है?
निर्विवाद रूप से यह सामूहिक प्रयास से संभव हो पाया। मुझे शासन की ओर से कार्य करने की स्वतंत्रता दी गई और मैंने पूरी टीम को यह स्वतंत्रता दी कि पुस्तक निर्मिती के दौरान सभी पहलुओं पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए, जो निष्कर्ष निकले सर्वसम्मति से उसका कार्यान्वयन हो। हम अपने रचनाकारों के प्रति हार्दिक कृतज्ञ हैं जिन्होंने बड़े सहज भाव से सुझावों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया। मैं शुक्रगुज़ार हूँ पुस्तक समिति और अभ्यासगट के सदस्यों का जिनके समर्पण और मेहनत से इतनी खूबसूरत पुस्तक विद्यार्थियों के हाथों में पहुँच सकी।
पाठ्यपुस्तक निर्मिती को लेकर आपने खुलकर मुझसे बात की। इसके लिए धन्यवाद और आपकी पूरी टीम को हार्दिक बधाई।