नृपेन्द्र कुमार मौर्य | navpravah.com
नई दिल्ली | त्योहारों का समय आते ही भारतीय रेलवे एक नई समस्या लेकर हाजिर हो जाती है। इस बार उत्तर प्रदेश और बिहार की जनता के लिए सरकार और रेलवे ने मिलकर जो विशेष उपहार दिया है, वह है ट्रेनें निरस्त करने का। दीपावली और छठ जैसे महत्वपूर्ण त्योहारों के दौरान, जब ज्यादातर लोग अपने घरों को लौटने के लिए ट्रेन की टिकट बुक कर चुके हैं, रेलवे ने अपनी योजनाओं को जनता के हित से परे रखकर विकास कार्यों का शंखनाद कर दिया है।
गोरखपुर-गोंडा रेलखंड पर डोमिनगढ़-जगतबेला के बीच ऑटोमेटिक सिग्नलिंग और कुसम्ही-गोरखपुर कैंट-गोरखपुर के तीसरी लाइन के निर्माण के चलते डोमिनगढ़ स्टेशन पर नॉन इंटरलॉकिंग का काम जारी है। इसका नतीजा? 36 ट्रेनें रद्द, 64 ट्रेनों का मार्ग परिवर्तन, और हजारों यात्रियों की उम्मीदों पर पानी फिरना। दीपावली और छठ के मौके पर जब घर की ओर जाने की तड़प हर किसी के दिल में होती है, ऐसे में रेलवे का यह कदम न सिर्फ निराशाजनक है, बल्कि समझ से परे भी।
विकास के नाम पर जनता की उपेक्षा?
रेलवे के अधिकारी और सरकार बार-बार यह दावा करते हैं कि इन कार्यों का उद्देश्य देश की परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाना है। पर सवाल यह है कि त्योहारों के दौरान जब लाखों लोग सफर में होते हैं, तब ही इन योजनाओं को लागू करने की क्या जरूरत थी? क्या यह पहले से तय नहीं किया जा सकता था कि इस संवेदनशील समय में ऐसा कोई कार्य न किया जाए? विकास की आड़ में जब जनता को इतनी तकलीफ दी जाए, तो वह विकास किस काम का?
उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग, जो पहले से ही अपने घर लौटने के लिए संघर्ष कर रहे थे, अब इस नई समस्या से जूझ रहे हैं। जिन लोगों ने महीने पहले टिकट बुक की होगी, वे अब या तो अपने टिकट कैंसिल करवाने की जद्दोजहद में लगेंगे, या फिर नए मार्ग पर जाने के लिए अपनी योजना को बदलने पर मजबूर होंगे।
उत्सव के समय असंवेदनशीलता-
यह कोई छोटी समस्या नहीं है। दीपावली और छठ के त्योहार भारतीय समाज में विशेष महत्व रखते हैं, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए। ये त्योहार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठानों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि अपने परिवार के साथ समय बिताने, रीति-रिवाजों को निभाने और अपनों के साथ खुशी के पलों को साझा करने का अवसर होते हैं। ऐसे में जब लोग महीनों पहले अपने घर जाने की तैयारी करते हैं और टिकट बुक कराते हैं, रेलवे का इस तरह का कदम उनकी पूरी योजना को ध्वस्त कर देता है।
क्या रेलवे के अधिकारियों और सरकार को यह अंदाजा नहीं था कि इस समय इस तरह के कार्यों से जनता को कितनी परेशानी हो सकती है? या फिर यह मान लिया गया है कि जनता को असुविधा देना विकास का अनिवार्य हिस्सा है?
प्रशासन की अदूरदर्शिता-
यहां सवाल सिर्फ ट्रेनें निरस्त होने का नहीं है, बल्कि प्रशासनिक अदूरदर्शिता का है। किसी भी बड़े कार्य को करने से पहले उसके प्रभावों पर विचार करना जरूरी होता है। खासकर तब, जब वह कार्य आम जनता के जीवन को सीधे प्रभावित करता हो। क्या रेलवे और सरकार को यह बात समझ में नहीं आई कि दीपावली और छठ के दौरान इस तरह के काम से कितने लोगों की मुश्किलें बढ़ जाएंगी?
इतने महत्वपूर्ण समय में अगर प्रशासनिक व्यवस्था इस तरह ढीली हो जाती है, तो जनता के मन में सवाल उठना लाजमी है। आखिर क्या यह सब योजनाबद्ध तरीके से नहीं किया जा सकता था? क्या त्योहारों के बाद इन कामों को पूरा करने का कोई और समय नहीं मिल सकता था?
रेलवे का यह कदम किसी भी दृष्टिकोण से जनता के हित में नहीं कहा जा सकता। त्योहारों के समय यात्रा करना पहले से ही मुश्किल होता है, और ऐसे में रेलवे के इस फैसले ने लोगों की परेशानियों को और बढ़ा दिया है। जनता के लिए ट्रेन यात्रा सिर्फ एक सफर नहीं, बल्कि अपने परिवार के साथ जुड़ने का माध्यम होता है, और इस माध्यम में बाधा डालना एक तरह से उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ है।
सरकार और रेलवे से जनता की यही अपेक्षा है कि वे अपनी योजनाओं को आम जनता की सुविधा के अनुसार बनाएं। विकास जरूरी है, पर जनता की परेशानियों को नजरअंदाज करके नहीं।