डॉ. कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk
“हस्ती अपनी हुबाब की सी है
ये नुमाइश सराब की सी है”
– मीर
इस फ़ानी दुनिया में ख़ूबसूरती एक खु़लूक़ की तरह, उम्र के साथ गुज़र जाती है और रह जाती हैं यादें , माज़ी की। मुन्कज़ी साल मसलसल आँखों में ख़्वाबों की तरह भरते हैं और फिर से उस वक़्त को जी लेने की ललक उठती है। दुनिया के दानिशमंदों ने अब तक ऐसी कोई सूरत या तरकीब नहीं बनायी है गुज़रे वक़्त में जाने की, लेकिन कभी कभी शिद्दत इतनी ज़्यादा होती है कि गुज़रा हुआ वक़्त वही सारे अंदाज़ लेकर वापस आता है। कुछ ऐसी ही दास्ताँ है, परी-चेहरा, नसीम बानो की।
“परी-चेहरा”, ये नाम उन्हें उनकी खू़बसूरती की वजह से दिया गया था और नसीम बानो की फ़िल्मों के इश्तेहारों में उनका नाम इसके साथ ही लिखा जाता था। नसीम बनो की माँ का नाम शमशाद बेगम था लेकिन वे छमियां बाई के नाम से पुरानी दिल्ली में मशहूर थीं और उनका पेशा गाने बजाने का था। वे अपने दौर में बहुत मशहूर थीं। नसीम के वालिद, हसनपुर के नवाब अब्दुल वहीद खान थे।
जब नसीम पैदा हुई थीं तो इनका नाम रोशन आरा बेगम रखा गया था। ये 1916 की बात है। नसीम की माँ ने उनका दाखिला एक अच्छे से स्कूल में कराया और वे इन्हे डॉक्टर बनाना चाहती थीं। लेकिन नसीम का ध्यान तो फिल्मों में ही था। एक बार जब उनका बम्बई (अब मुंबई) जाना हुआ और उन्होंने शूटिंग देखी, उन्होंने मन में ये तय कर लिया की उन्हें काम करना तो फिल्मों में ही है।
वे इतनी खूबसूरत थीं की शूटिंग के दौरान ही सोहराब मोदी जैसे अज़ीम फ़नकार ने उन्हें फ़िल्मों में काम करने की दावत दे दी। नसीम की माँ इसके लिए बिलकुल राज़ी न थीं लेकिन उनकी ज़िद के आगे उन्हें मानना ही पड़ा और उन्होंने इजाज़त दे दी।
सोहराब मोदी ने अपनी कंपनी मिनर्वा मूवीटोन के लिए नसीम के साथ क़रार किया और ठीक इसके बाद, 1935 में आयी फिल्म “खून का खून”, जो कि अंग्रेज़ी नाटक “हैमलेट” पर आधारित थी। नसीम का किरदार, “ओफीलिया” का था और उनकी खूबसूरती और अदाकारी कि खू़ब तारीफ़ हुई। इसके बाद उन्होंने 1938 तक, “खान बहादुर”, “तलाक़” और “मीठा ज़हर” जैसी फ़िल्मों में काम किया लेकिन उन्हें शोहरत मिली नूरजहां का किरदार निभाने के बाद, जो उन्होंने फ़िल्म “पुकार” में निभाया। उनकी खूबसूरती और बेहतरीन अदाकारी के इतने चर्चे थे कि उन्हें ढेर सारी फिल्मों के लिए बुलाया जाने लगा लेकिन सोहराब मोदी उन्हें क़रार से आज़ाद करने को तैयार न थे। इस बात से दोनों में कुछ अनबन हुई।
कुछ समय बाद नसीम ने मुहम्मद एहसान के साथ, जो अब उनके शौहर भी थे, ताज महल पिक्चर्स की शुरुआत की और कई फिल्में बनाईं। इसके पहले उन्होंने फ़िल्मिस्तान जैसे स्टूडियो में काम भी कर लिया था तो उन्हें तजुर्बा भी था। 1942-53 तक वे अपने शौहर के साथ मिलकर फिल्में बनाती रहीं। “उजाला”, “अजीब लड़की”, “चांदनी रात” जैसी कई फिल्में बनाईं। मिनर्वा कंपनी के ही बैनर तले, 1957 में आयी फिल्म ,”नौशेरवां-ए-दिल”, इनकी आखिरी फिल्म साबित हुई क्योंकि इसके पहले कुछ निचले स्तर की, जादुई क़िस्म की फिल्में जैसे, “सिंदबाद जहाज़ी” और “बाग़ी” में, जो कि उनके अपने ही प्रोडक्शन में बनी थी, दर्शकों ने नकार दिया और खूबसूरत नसीम ने जान लिया कि सभी रोशनियों की उम्र होती है और बेहतर है कि बुझ जाने के पहले अपनी लौ से एक और शमा रौशन की जाए।
1957 में अदाकारी को अलविदा कहने के बाद इन्होने 1961 से बतौर ड्रेस डिज़ाइनर का काम करना शुरू किया और फिर एक परी- चेहरा बनाया, जिसे उन्होंने पैदा भी किया था और संवारा भी था। ये थीं इनकी बेटी, जो मशहूर अदाकारा बन जाने वाली थीं और नाम था सायरा बानो। नसीम के बाद आज तक कई खूबसरत अदाकाराएं आयीं , लेकिन परी-चेहरा का ख़िताब सिर्फ़ सायरा बानो को ही दिया गया। इसके लिए नसीम ने अपने शौहर से भी दूर रहना मंज़ूर किया था और बंटवारे के वक़्त, पाकिस्तान न जा के, हिन्दोस्तान में ही रह कर अपने बच्चों की परवरिश की।
नसीम बानो की खूबसरती और उनकी सलाहियत सायरा बानो में भी आयी और इसी सुकून की बात के साथ, एक तवील उम्र जी कर, वो खूबसूरत अदाकारा 2002 में इस जहाँ से उस जहाँ को चली गयीं।
“अगरचे फ़ानी है दुनिया तो हुआ करे
आते हैं लौट कर, ताब-ओ-अदब”
–विमलेन्दु
(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)