भूली हुई यादें- “टुनटुन ”

डॉ० कुमार विमलेन्दु सिंह | Navpravah Desk

बहुत मुश्किल होता है बरक़रार रखना तबस्सुम, अगर ज़िंदगी, पेश न आ रही हो अदब से, जब मुलायम न गुज़र रही हों शामें और शजर भी न दिखता हो नज़दीक कड़ी धूप में, दो कदम चलना भी सहल न रह जाता है। या तो इतना रो लें, कि सब से दिलासा पा जाएं, या इतना हंस लें, हंसा लें अपने आस पास सब को कि एक झूठी कहानी लगे, ग़मों का होना ज़िंदगी में। हंसते रहना ही चुना, उमा देवी खत्री उर्फ़ टुनटुन ने। एक अदद ज़िंदगी और उसमें सहूलियत की तलाश ने टुनटुन को मुसाफ़िर ही रखा ताउम्र और जब सब मिला तो हसरतें न थीं।

टुनटुन

अमरोहा में, अलीपुर नाम के एक गांव में टुनटुन का जन्म, 1923 में हुआ और जब ये बस दो या ढाई साल की थीं, इनके मां, बाप और भाई की, ज़मीन के विवाद में, हत्या हो गई। अकेली टुनटुन का बचपन अपने चाचा के साथ, मथुरा में बीता। बचपन में जब टुनटुन रेडियो पर गाने सुना करती थीं तो न केवल गाने, गायक और म्यूज़िक डायरेक्टर के नाम भी इन्हें याद हो जाया करते थे और इनकी नकल में वे गाती भी थीं।

रेडियो के लिए गाती हुई टुनटुन

रेडियो के साथ, उनकी अलग दुनिया थी। उस ज़माने में ज़्यादातर लड़कियों को पढ़ाया नहीं जाता था और इस कुरीति का शिकार टुनटुन भी हुईं। लेकिन इनकी एक सहेली थी जो दिल्ली में रहती थी और कभी कभी मथुरा भी आती थी। टुनटुन उससे, शहर की बातें सुनती थीं। इस दोस्त के कुछ जानने वाले मुंबई में थे और फ़िल्मों में काम भी करते थे। टुनटुन ने उन सभी जानने वालों के लिए, अपने दोस्त से चिट्ठी लिखवाई, और मुंबई भाग गईं।

” कई बार ये भी कहा जाता है कि कोई, अब्बास काज़ी साहब थे, जो टुनटुन को पसंद करते थे और उनके कहने पर ही वे मुंबई गयीं। जो भी बात रही हो, जब ये मुंबई पहुंचीं, इनकी उम्र 23 साल की थी। वहाँ पहुंचते ही ये सीधे नौशाद साहब के यहां गईं और उनसे कहा, कि या तो वे इन्हें गाने का मौक़ा दें, या वे समंदर में कूद कर जान दे देंगी। “

नौशाद साहब, ख़ुद भी ग़ुरबत में ही खिले हुए गुल थे, सो उन्होंने, टुनटुन की बेचैनी और लाचारी को समझा। उन्होंने गाना सुनाने को कहा और पाया कि टुनटुन ठीक गा लेतीं हैं। इसके बाद नौशाद साहब के कहने पर एक दो छोटी फ़िल्मों में इन्होंने गाया। ये सब 1946 में हो रहा था।

एक फ़िल्म में टुनटुन और सुन्दर

अगले ही साल, हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ और ए० आर० करदार की फ़िल्म, “दर्द” आई। इस फ़िल्म में अदाकारा, मुनव्वर सुल्ताना पर फ़िल्माए गए सभी गाने ज़बरदस्त मशहूर हुए, ख़ासकर “अफ़साना लिख रही हूँ, दिले बेक़रार का” ये गाना उमा देवी उर्फ़ टुनटुन ने ही गाया था। इसके बाद तो इन्होंने नौशाद साहब के निर्देशन में सुरैया के साथ भी गाया। “बेताब है दिल, दर्दे मोहब्बत के असर से” इसी गाने में सुरैया के साथ उमा देवी उर्फ़ टुनटुन की भी ख़ूब तारीफ़ हुई। इसके बाद इन्होंने महबूब ख़ान की फ़िल्मों म भी गाया। बतौर गायक, टुनटुन की शोहरत हो चुकी थी और 1948 में “जेमिनी फ़िल्म्स, मद्रास” की फ़िल्म “चन्द्रलेखा” में, इन्होंने 7 गाने गाए। शोहरत का आलम ये था कि “अफ़साना लिख रही हूँ, दिले बेक़रार का” ये गाना सुनकर दिल्ली में एक साहब इतने दीवाने हुए कि मुंबई आ पहुंचे और कुछ दिनों के इंतज़ार के बाद टुनटुन से शादी कर ली। टुनटुन इन्हें मोहन बुलाती थीं।

अब दौर बदल रहा था और लता मंगेशकर, आशा भोंसले, सुमन कल्याणपुर जैसे कमाल कलाकार, पूरी तैयारी के साथ फ़िल्मों में आ रहे थे, सो नौशाद साहब ने टुनटुन से कहा कि वे अब ऐक्टिंग के बारे में सोचें क्योंकि गाने में अब जगह बनाए रखना, आसान न रह गया था। फ़कीर जैसे अंदाज़ में, टुनटुन ज़िद कर बैठीं कि ऐक्टिंग करेंगी तो दिलीप कुमार के साथ। ये दिल की बहुत साफ़ थीं सो नौशाद साहब मना न कर पाए और 1950 में आई “बाबुल” में टुनटुन नज़र आईं और भारत को उसकी पहली महिला कॉमेडियन मिल चुकी थी। इस फ़िल्म में एक सीन था, जिसमें दिलीप कुमार को टुनटुन के साथ लड़ते हुए एक खटिए पर गिरना था। जैसे ही ये सीन ख़त्म हुआ, दिलीप कुमार ज़ोर से बोले, “इस लड़की का नाम टुनटुन रख दो”। ये नाम इतना मक़बूल हुआ कि हर मोटी लड़की को इसी नाम से बुलाया जाता था।

टुनटुन ने 198 फ़िल्मों में, अपने दौर के लगभग सभी बड़े सितारों के साथ काम किया। हिन्दी के अलावा और भी भाषाओं की फ़िल्मों में काम किया। 1990 में आई, “क़सम धंधे की” इनकी आख़िरी फ़िल्म थी। सन् 2003 में इनका देहांत हो गया।

पितृसत्तात्मक समाज में रहते हुए, दुखों को झेलते हुए, इस महिला ने अपनी पहचान बनाई, कई लोगों की मुस्कुराहट की वजह बनी। चमकदार फ़िल्म उद्योग से यही उम्मीद है कि वो अपनी पहली महिला कॉमेडियन को इज़्ज़त बख़्शे।

टुनटुन के जज़्बे और खुशमिज़ाजी को हमारा सलाम।

(लेखक जाने-माने साहित्यकार, स्तंभकार, व शिक्षाविद हैं.)

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